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________________ भगवती के अंग प्रश्न-प्रकृति जैसे पशुबन के आधार पर लगा कि अधातव्रत में किन किन घात को चुनाव करती है तथा इसी मार्ग से विकास भी स्थान है। पर इतना और समझना चाहिये होता है, धर्म में भी उसी नीति का अवलम्बन कि अधात व्रत में किसी किसी अधात को भी क्यों न किया जाय! स्थान नहीं है। जैसे घात होने से ही उत्तर---प्रकृति और धर्म के लक्ष्य में बहुत होजाता उसी प्रकार अघात होने से ही संयम हो जाता। कुछ अपात संयम रूप अन्तर है। विकाम ही नहीं होता, दुःख सं यम रूप है कछ संयम असंयम से रूप भी होता है । प्रकृति की दृष्टि में सुख और सम्बन्ध नहीं रखते । इस प्रकार अघात के भेदों दुःख में कोई अन्तर नहीं है। उसके लिये तो। को भी समझ लेने से प्राणरक्षण व्रत का पूरा रूप स्वर्ग भी विकास है, नरक भी विकास है। परन्तु ध्यान में आजायगा । अघात सात तरह का होता धर्म का सम्बन्ध सुख से है, वह स्वर्ग को उन्नति है।९प्रेमज,२ अशतिक, ३निरपेक्ष ४ कापटिक, और नरक को अवनति कहता है। प्रकृति की कसौटी को अगर धर्म भी अपना ले तो धर्म की : ५ स्वार्थज, ६ मोहज, ७ अविवेकज । १ कोई जमरत नहीं रह जाती है। क्योंकि प्रकृति प्रेमज--वि .वीतरागता, अकषायता तो आना काम अपने आप कर रही है, उसका आदि एक ही बात है इसके आधार से जो भूलमधार अगर धर्म नहीं करना चाहता तो अवात होता है उसे प्रेमज अघात कहते।। उसकी जरूरत क्या है ? विकास का अर्थ है प्रेम और मोह में जो अन्तर है वह आचार कांड बढना, धर्म प्रकृति के बढने को नहीं रोकता के दूसरे अध्याय में बता दिया गया है, इसलिये प्रेम किन्त प्रकृति की जो शक्ति नरक की तरफ के विषय में यहां विशेष नहीं कहाजाता । प्रेमज बढ़ने में खर्च होती है उसे वह स्वर्ग की तरफ ले अघात को बन्धुत्वज अधात भी कहते हैं। यही जाता है, सुख की तरफ ले जाता है। इसलिये अपात वास्तविक अधात है। प्रकृति की और धर्म की कसौटी में थोड़ा फरक है। २ अशक्तिक-मन में तो घात करने का १ प्राणरक्षण व्रत विचार है पर शक्ति न होने से घात नहीं किया जाता है यह अशक्तिक अघत है। बहुत से हो.. गणघात के तेरह भेदों को समय लेने पर ___ अपनी कमजोरी को प्रबोधनी टोकसाधना का प्राणरक्षण व्रत या अघातबत का रूप ध्यान में रूप दिया करते हैं पर उनकी बह लोकसाधना आजाता है । साधारणतः यह बात ध्यान में नहीं है अशक्तिक अधात है। रखना चाहिये कि प्राणरक्षणवती, यथायोग्य साधक वर्धक न्यायरक्षक घात करेगा, आरम्भज प्रश्न- कमजोरी के कारण रोनेधोने, हायस्वरक्षक में मर्यादा रक्खेगा, प्रमादज अविवेकज हाय करने, गाली देने आदि की अपेक्षा लोकन बाधक तक्षक भक्षक ये पांच घात न करेगा। साधना का रूप बनाना तो अच्छा ही है। इस प्रकार प्राणघात को लेकर प्राणरक्षण उत्तर--साधारणतः अच्छा है अधिकांश व्रत का रूप बनटदिया गया इसमे यह पता अवसरों पर काफी भी है। पर लोकसाधना नहीं
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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