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________________ २९५ ] सत्यामृत शब्दों तथा व्यवहार में तीन से तीव्र विरोध किया पसिनेवाले लोगों से इस राष्ट्रीय महाव्यक्ति में जा सकता है। तब यह घात वर्धक ही कह- महान् अन्तर है । व्यक्तित्व के लिये लड़ने झगड़ने लायगा। वाला सबका नाश करता है और सदा करता है प्रश्न-एक आदमी राष्ट्र की भलाइ के जबकि राष्ट्र के लिये झगड़नेवाला राष्ट्र की लिये अपना सर्वस्व लगा देता है, विलास वैभव सुखवृद्धि करता है। अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंग कभी आदि का भी त्याग कर देता है, यहां तक कि कभी आते हैं इसलिये इसकी तक्षकता घट जाती यश अपयश की भी पर्वाह नहीं करता व्यक्ति- ह और कादाचित्क हो जाती है । गत रागद्वेष भी किसी से नहीं है परन्तु राष्ट्र की इसी कांड के पहिले अध्याय में उदार पद भलाई के लिये दूसरे राष्ट्रों पर अत्याचार करने से नाम से सात पद बतलाये हैं । व्यक्तित्व के दिये नहीं चूकता, जिन्हें वह राष्ट्रविरोधी समझता है तक्षण करनेवाला परमस्वार्थ: या स्वार्थी है जब उनका नीतिअनीति का विचार किये बिना कि राष्ट्र के लिये तक्षण करनेवाला अक़दार है । दमन करता है, ऐसे निःस्वार्थ व्यक्ति को क्या इन दोनों में यह महान् अन्तर है । कहा जाय उसके द्वारा होनेवाला घात वर्धक है किसी घात को वर्धक ठहराते समय यह या तक्षक ! यदि तक्षक है तो अपने स्वार्थ के देखना चाहिये कि उससे अपने पराये का भेद लिये ऐसे अत्याचार करनेवाले में और इस महीं किये बिना विश्वकल्याण या अधिक से अधिक पुरुष में क्या अन्तर रहा ? सुख होता है या नहीं ! अगर होता है तो वह उत्तर-व्यक्तित्व की ओट हो या राष्ट्रीयता वर्धक घात है। की ओट हो, अगर कोई दूसरों पर अन्यान । ३ न्यापर सकारात--न्याय की रक्षा करने के करता है तो वह तक्षक है, पापी है । यह अपने लिये जो घात किया जाता है वह न्यायरक्षक लिये नहीं राष्ट्र के लिये कर रहा है इसलिये ___घात है। इससे भी भगवती की साधना होती विश्वकल्याण की हानि रुक नहीं जाती और है। जैसे न्यायाधीश अपराधी को दंड देता है, विश्वकल्याण को हानि पहुंचाने वाला वर्धक नहीं ___ या कोई भी व्यक्ति डाकू लम्पट आदि को दंड कहा जा सकता। हां, इतना विचार अवश्य किया जा सकता है कि अभी मामलों में देता है, यह सब न्यायरक्षक घात है। म. राम ने रावण का घात इसी तरह का किया था । वह कितना दोष है और आगे पीछे की परिस्थिति का कितना दोष है ! अगर परिस्थिति का पश्न-म. रामने तो अपनी इज्जत और पत्नी दोष न हो. सिर्फ राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा या राष्ट्र की रक्षा की थी इसलिये इसे स्वरक्षक क्यो की भूख बुझाने के लिये निरपराध ही किसी न कहा जाय । न्यायरक्षक क्यों कहा जाय ? राष्ट्र को सतावे तो यह तक्षक घात होगा, उचर-न्याय के साथ स्वार्थ की रक्षा होती हो पर स्वार्थ इतना प्रबल न हो कि न्याय की होइन होने पर भी अपने व्यक्तित्व के उपेक्षा कर सके तो उसे न्यायरक्षक घात ही लिय या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये दुनिया को कहेंगे, स्वार्थरक्षक नहीं।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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