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________________ २८५ ] मत्यामृत इसलिये प्रवेोधिनी साधना को ही हम अपना पेय प्रेमदर्शनी आदि का भी उपयोग करना चाहिये । क्यों न बनावें ? संहारिणी का त्याग करदें। ऐसी भावना रखना चाहिये ऐसा प्रयत्न भी करना उत्तर-प्रबोधनी-साधना ही हमारा ध्येय चाहिये कि कोई ऐसा व्यक्ति न रह जाय जिसके है । हमें उस युग को लाने की पूरी कोशिश लिये संहार की जरूरत हो। करना चाहिये जिसमें संहार की जरूरत ही भगवती की लोकसाधना का मार्ग ऐसा न हो। पर संहार की जरूरत रहने पर भी कठिन है कि कितनी ही सूचनाएं दी जॉय संहार को दूर हटा दिया जाय तो यह साधना समस्या बनी ही रहेगी। हां, जिसने सत्येश्वर का न होगी अंधेर होगा । हमारी कोशिश निरपराधी दर्शन पालिया है जो सदसद्विवेक के साथ विश्वबनने और बनाने की होना चाहिये, अपराधियों हित के मार्ग पर चल रहा है वह साधक सरको दंडमुक्त रखने की नहीं। इससे अन्धेर लता से सफल बन सकता है। फैलेग पापियों को निरंकुशतः मिलेग । हां, जहां बहुत से लोग केवल भावना के वश में प्रबोधनी का उपयोग है वहां हां उसीका प्रयोग होकर अपने अभ्यास या संस्कारों के अनुसार करना चाहिये। जहां तक बने संहारिणी से सत्यकी उपेक्षा करके साधना में जीवन लगा देते बचते रहें। हैं वे त्याग से महान बन कर भी साधक नहीं __ मनुष्य समाज में पशुता बिलकुल नष्ट हो बन पाते । इसलिये भगवती के साधक को जाय इसके लिये जन्मसे ही उसपर सुसंस्कार निष्पक्ष होकर सत्येश्वर की सेवा करना चाहिये डालना, अपना जीवन आदर्श रखना, शिक्षण और जिस तरफ सन्येश्वर का इशारा हो उसी देना आदि साधनाएं करना चाहिये, यथावसर तरफ बढ़कर साधना सफल बनाना चाहिये ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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