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________________ भगवती की साधना किसी कार्य में अपनी दृढ़ता का परिचय देने के लिये कुछ ऐसे वचन कहे जायँ जिससे जो दूसरे को आश्वासन मिले तो ऐसी जगह I आत्मप्रशंसा होगी उसमें भी अभिमान का दोष न होगा । जैसे किसी ने कहा, आप चिन्ता न करो मेरे रहते आपका कौन क्या कर सकता है ? वैद्य रोगी को इसी प्रकार आश्वासन दें तो यह आत्मप्रशंसा नही। हां, आश्वासन देने का भाव न हो या गौण हो किन्तु ठगने का भाव मुख्य हो तो यहां लोभ छल अभिमान आदि दोष हैं ही । या सुधारक लोग जो अपने प्रयत्नों की अमोघता बताने के लिये दृढ़ता का परिचय देते हैं वह भी अभिमान नहीं है। इस बहाने से अपने गीत गाना हो तो अभिमान है ही । आत्मगौरव के द्वारा न तो दूसरों का उचित महत्व गिराया जाता है, न अपना अनुचित महत्व बढ़ाया जाता है । इसलिये अभिमान दूर करके मनुष्य को आत्मगौरव का खयाल रखना चाहिये । तुम में आत्मगौरव है या अभिमान ! इसका निर्णय दुनिया कर ही लेती है पर अगर कुछ समय के लिये लोग भ्रम में भी पड़ जाय तो उस न को सहन करके भी आत्मगौरव की रक्षा करना चाहिये । ऐतिहासिक व्यक्तियों की आलोचना करने में अभिमान नहीं है, रावण आदि की निंदा परनिन्दा नहीं है क्योंकि इसमें अपना महत्व बढ़ाने का विचार नहीं होता किन्तु पाप-पुण्य की आलोचना का विचार होता है, पाप का दमन आर पुण्य को उत्तेजन देने की समान होती हैं। हाँ, किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को अपना समकक्ष समझकर अपना महत्व बढ़ाने के लिये उसकी निन्दा की जाय तो यह भी पर- निन्दा होगी । अपने प्रांत, देश, जाति आदि का होने से किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की प्रशंसा की जाय और उसे बढ़ाने के लिये दूसरे प्रांत, देश, जाति आदि के ऐतिहासिक व्यक्ति की निन्दा की जाय तो यह भी परनिन्दा है । वर्तमान के प्रसिद्ध व्यक्तियों के विषय में भी इसी नीति से विचार करना चाहिये । सन्तान या सन्तानोपम व्यक्तियो की निंदा उनके सुधार के लिये की जाय तो यह परनिन्दा नहीं है । ऐसे व्यक्तियों के सामने अगर अपने जीवन की ऐसी सचाई रक्खी जाय जिससे वे कुछ सीख सकें, तो सिखाने की दृष्टि से आत्मप्रशंसा में भी अभिमान का दान होगा | २६४ जिस जगह हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ न हो सिर्फ नीति का विचार हो वहाँ भी निन्दनीय कार्य की या कर्ता की निन्दा परनिन्दा नहीं है । जगत में भले बुरे आदमियों का जो फैलता है वह ऐसी ही निरपेक्ष स्तुतिनिन्दा के आगर पर फैलता है । धर्मी की प्रशंसा के समान पापी की निन्दा भी मानव स्वभाव है और उसकी समाज में भी है इसलिये इसे अभिमान या द्वेष नहीं समझना चाहिये। हां, उसने हमारा अमुक काम नहीं कर दिया इसलिये खराब है और हमारा अमुक क.म कर दिया इसलिये अच्छा है इसको लेकर जो निन्द्रामा की जाती है वह स्वभाव का अच्छापन नहीं है, वह हेय है पश्न-- प्रत्येक मनुष्य अपने अनुभव आधार से किसी के गुण दोष समझा करता उसके लिये जो अच्छा साबित होता है उसी को अच्छा कहता है, जो उस के लिये बुर| साबित
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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