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________________ भगवती की साधना हुआ है। एक तरफ पति प्रेम था दूसरी तरफ़ और सत्य था पर प्रेम सत्य हुआ, इसलिये कल्याणी देवी विजय घोषित की। न्याय में बाधक न ने महर्षि की ही राज्य का ऐसा नियम था कि जो राजपंडित को जीत लेगा वह राजपंडित माना जायगा । इसलिये महर्षि राजपंडित माने गये । परन्तु महर्षि ने जिनका नाम सत्यशरण था, कहा- अगर शारदाचरण सत्य को स्वीकार कर मेरे पास दीक्षा लें तो मैं उन्हें ही राजपंडित बनाऊँगा । अभिम्पनी शाखाचरण ने यह बात स्वीकार न की । और लज्जावश वे नगर छोड़कर जंगल में जाने लगे । कल्याणी देवी भी साथ चलने लगीं । शारदाचरण ने कहा-- तुम्हे जंगल में चलने की कोई ज़रूरत नहीं है, पराजय मेरा हुआ है न कि तुम्हारा । लोगों के आवागमन से रहित एक जंगल में जाकर वे दोनों तपस्वी की तरह रहने लगे । जंगल के पद-कन्द-मूल आदि खाकर गुज़र करते थे, बलकल पहिनते थे । एक झोपड़ी बनाकर रहते थे । झोपड़ी को स्वच्छ रखना, उसके चारों तरफ़ जो आँगन बनाया गया था उसे साफ़ रखना, फूलों की क्यारियों में पानी देना, फल-मूल लेने पनि के साथ जाना, उन्हें अच्छी तरह पथों में सजाकर पति को परोसना, बचे हुए समय में चर्चा करना, काम करते समय भी हँसी- विनोद से पति केण चित को प्रसन्न रखना, ये सब काम कल्याणी देवी उत्साह से करती थीं । 'कल्याणी देवी ने ही मुझे पराजित घोषित किया' इस बात को लेकर के मन मे जो एक शल्य था सेवा- परायणता और प्रेमी चुका था और जब एक बार शारदाचरण बीमार पड़े तब कल्याण देवी ने जो दिन-रात अटूट सेवा की शारदाचरण - यदि ऐसा था तो तुमने मेरा उससे शारदाचरण का मन बिस्कुट पिघल गया पराजय घोषित क्यों किया ! वह कल्याणीदेवी की जीवन से दूर हो तीन दिन को और उनने रोते रोते कहा कि 'तुम्हारी निष्पक्षता कल्याणी ने कहा - मेरे देवता, नारी के पराजय होने की जरूरत नहीं है। पति की जय ही उसकी जय है पति का पराजय ही उसका पराजय है । और फिर जो कुछ सीखा मैंने आपही से सीखा है आप मेरे पति भी हैं और गुरु भी । 1 व्ह [ २५२ कल्याणी - राजपंडितां बनने की अपेक्षा आपकी अनुचरी ( पीछे पीछे चलनेवाली ) बनने में मुझे अधिक सुख है- मेरा कर्तव्य भी यही है धर्म की भी यह आज्ञा है । कल्याणी - मैं आपका पराजय घोषित कर रही हूँ यह मुझे ख़्याल ही नहीं आया। मुझे तो यही खयाल आया कि सत्य के आगे मैं झुक रही हूँ, मैं अपना ही पराजय कर रही हूँ | घोषित शारदाचरण तो तुमने महर्षि के पास दीक्षा क्यों न ले ली कदाचित् महर्षि तुम्हें ही राजपंडिता बना देते । के कारण तुम्हारे प्रेम पर मुझे विश्वास हुआ था किंतु उस भूल का अब मुंझ महरा पश्चात्ताप हो रहा है।' कल्याणीने समझा मेरी तपस्या फल गई। आज प्रेम की पूरी जय हुई | उस जंगल में जब ये दम्पति स्वजन परिजन वैभव आदि से रहित तीन जीवन बिता रहे थे और शारदाचरण दिन के लंघन के बाद जब कल्याणोदवी उ
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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