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________________ भगवती की साधना [ २५० घनिष्टता के बिना कौटुम्बकता या दाम्पत्य नहीं रह ऋतिव्य परवशतः के लिए धनीमूत प्रेम की ‘सकते । पूर्ण निष्पक्षता के होने पर प्रेम विश्वप्रेम ज़रूरत है-मोह की नहीं । इसलिये अपायी बनगा। अगर पत्नी, पति के विषय में या पति, मनष्य कैश्रिक कन्या का परिचय पत्नी के विषय में विश्व-प्रेम के समान ही प्रेम दे सकता है। उसकी कन्य-परायणता अगर रक्खे, उसके दुःख में वह उतना ही दुःखी हो स्थायी है तो उसे हम किट्ट न कहेंगे | उसे जितना विश्व के किसी प्राणी के विषय में दुःखी हम तेज कहेंगे। हुआ जाता है तब क्या ऐसे उथले प्रेम से पतिपत्नी, मित्र, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य का रिश्ता रह प्रश्न- प्रेम और मोहे में जो आपने अन्तर सकता है ! इसके लिये तो स्थायी पक्षपात बतलाया है उसको जानलेने के बाद मनुष्य प्रेम चाहिये जिसे आप मोह-किट्ट कहेंगे तब बतलाइये से सन्तुष्ट नहीं हो सकता, प्रेमी की अपेक्षा वह कि अकषायता और कौटुम्बिक कर्तव्य-रायणतः मोही को ही अधिक पसन्द करेगा । विश्वसनीयता इन दोनों का समन्वय कैसे हो । भी प्रेम की अपेक्षा मोह में अधिक है । मोहउत्तर- कौटुम्बिकता स्थायी विनिमय के बाला पना ता अछे बुरे सब कामों में हमारा सिद्धांत पर खड़ी है और इसमें विनिमय का अनुकरण करेगी किन्तु प्रेमवाली पत्नी अच्छे बुरेका रूपभी माप नहीं अमाप है। माप-विनिमय में विचार करती रह जायगी तब पति मोहिता-पढ़ी पर ही अधिक विश्वास कर सकेगा इसी प्रकार देने लेने में बराबरी का विचार रक्खा जाता है। पत्नी को भी मोही-पति अधिक पसन्द आयगा कम मिले तो कम देना, आधिक मिले तो अधिक प्रेमी-पति तो जब देखो तब उचित-अनुचित का देना- ऐसा हिसाब रहता है। व्यापार, नौकरी आदि में माप-विनिमय होता है। पर अमाप विचार करता रहेगा, मोही अधपक्षपाती होकर विनिमय में ऐसा हिसाब नहीं होता। वहां एक हर हालत में उस की रक्षा करेगा। इससे मालूम दूसरे के प्रति सर्मपण होता है । पति-पत्नी एक होता है कि दाम्पत्य और कैम्बिकता के लिये प्रेम की अपेक्षा मोह अधिक उपयोगी है। दूसरे को समर्पण करते हैं । समर्पण के बाद हो सकता है कि पत्नी को पति से कम मिले उत्तर- भगवती की साधना स्वार्थ-परायणतः या पति को पत्नी से कम मिले पर कम मिलने से नहीं बार-कल्याणसे होती है इसलिये हरएक के कारण वे देने में कमी नहीं कर सकते । कोई आदमी को बुराई के कार्य में अपने कुटुम्बियों विश्व-प्रेमी जिन जिन से विनिमय के आधार पर से भी आशा न रखना चहिये । बुरे कार्य में बँधा हुआ है, उन उन की विशेष सेवा करना कुटुम्बीजन विश्वासरत्र न हों यह विश्व के लिये उसका कर्तव्य है। यह विशेष कर्तव्यपरायणता और अपने भविष्य के लिये अच्छा ही है। माह नहीं है, प्रेम है । मोह तो उस आसक्ति को कहते ह जिससे प्राणी दूसरे प्राणियों का भक्षण रहगई प्रेम की अपेक्षा मोह में अधिक विश्वसनीयता या तक्षण करने को तैयार हो जाता है । धनी- या अधिक उपयोगिता, सो मोह की अपेक्षा प्रेम भूत प्रेम का नाम माह नहीं है । के टुम्विक ही अधिक उपयोग और विश्वसनीय है।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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