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________________ सत्यामृत प्रेम रूप कैसे कह सकते हैं अथवा उसे अकषायता हुआ ललाई उड़गई बादलों की आकृतियाँ बिखर कैसे मान सकते हैं। गई कुछ बूंदे गिरी गर्मी में कुछ ठंडक सी मालूम उत्तर- यहाँ कर है मैत्री और वात्सल्य हुई मैंने सोचा- बनना बिखरना तो दुनिया नहीं। जब हम किसी भक्तिपात्र के साथ सिर्फ का स्वभाव है रंग जाता है रस आता है क्या बुरा मैत्रीका व्यवहार करते हैं उस समय हमारे मन में है, इस विचार से निराशा और खेद उड़ गये पर बराबरी प्रगट करने का या व्यक्तित्व का अन्तर तभी से बादलों को देखकर प्रेम का अनुभव मिटाने या कम करने का अहंकार रहता है इसलिये करता हूं बादल जड़ है उससे मैत्री आदि नहीं हो यहाँ प्रेम न रहा अहंकार रहा। अहंकार द्वेष सकती दूसरों का संस्मरण भी उससे नहीं होता रूप होने से कषाय है। प्रेम कषायरूप नहीं है। जिससे उनके अनुरूप बादल में भाव लाया जाय प्रश्न- जिससे हमें प्रेम होता है उस की जैसे मूर्ति में भक्ति लाई जाती है । अब बतलाइये स्मारक वस्तु से भी प्रेम होता है । मनुष्य गुरु की यहाँ प्रेम का कौन रूप है। . जूती की तरफ भी प्रेम की निगाह से देवता है उतर-- जो वस्तु हमें अज्ञान से ज्ञान में आदर भी करता है ऐसे प्रेन को किस भेद में लाने का निमित्त बनती है उसके विषय में भक्ति रक्खा जाय ! मैत्री आदि तो प्राणियों से रक्खी पैदा होती है, जो किसी काम में सहायक होती जाती है जड़ पदार्थों से नहीं। है उससे मैत्री का भाव आता है, जिस में छोटेउचर-- जड़पदार्थों में भी भक्ति प्रेम वात्स- पन के भाव के साथ प्रेम होता है उस में ल्य रक्खा जाता है यह सब उसी के अनुसार होता वात्सल्य आता है। फिर भी एक बात हमें ध्यान में है जिसके बे स्मारक हैं स्मारक तो एक तरह की रखना चाहिये कि इस प्रकार का वस्तुप्रेम मूर्त है सहाग है। मूर्ति की भक्ति वास्तव में बहुत ही जल्दी मोह बन जाता है । इस प्रकार मति की भक्ति नहीं होती किन्तु मूर्ति के द्वारा की अधिकांश मनोवृत्तियाँ अर्थमोह या कुलमोह किसी अन्य की भक्ति होता है उसी प्रकार स्मारक की श्रेणी में चली जाती है पर अगर मोह न बने के द्वारा हम स्मरणीय का ही प्रेम करते हैं। तो उन की योग्यता या उपकार के अनुसार उनमें इसलिये स्मारक और स्मरणीय के प्रेम में अन्तर भक्ति वात्सल्य या मैत्री की मनोवृत्ति होती है । नहीं होता दोनों एक ही भेद में शामिल होते हैं। रुचि-दसरों के नैतिक अधिकार छीने प्रश्न-जिस वस्तु का सम्बन्ध दूसरे से है बिना आवश्यकताओं को पूरी काने का भाव रुचि उस में भकि मैत्री या बात्सल्य रक्खा जासकेगा है। प्रेम में स्वार्थ गौण है विश्वहित या परहित पर एक चीज ऐसी है जिसका दूसरों से कोई मुख्य है, रुचि में नैतिक स्वार्थ की मुख्यता है सम्बन्ध नहीं। जैसे मानलो में असफलताओं से परहित गौण है। रुचि अगर न्याय के बाहर निराश होकर बैठा हूं सेचता हूं कि हिले कैसा चली जाय विश्वहित के विरुद्ध हो जाय तो मोह वैभव था रंग राग था पर अब तो सब कुछ बन जायगी । स्थितिप्रज्ञों योगियों और अहंतों में चलाया, इस समय बादलों पर दृष्टि पड़ी सन्ध्या भी रुचि पाई जाती है पर मोह नहीं पाया जाता। की ललाई उनपर बाई की थोड़ी देर में अंधेरा का था। देर में अवेरा काम-रुचि के पांच भेदों में पहिला भेद
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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