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________________ ४२९) सत्यामृत ८ बोधित बुद्ध । __ अवस्थासमभावका यह मतलब है कि उसमें शृङ्गार ९. स्वयंबुद्ध योगी वीर करुणा आदि नाना रस न हों। वह ऊंचे से १० तारकबुद्ध उंचा न्य यविनयी है और हर हालत में अपने • प्रश्न- क्या यह सम्भव नहीं कि बुद्ध कर्तव्य को पूरा करने का ध्यान रखता है, दुःखकी होजाने पर भी मनुष्य योगी नहीं हो। यहां तक कि वासना स्थायी नहीं बनती इन बातों ने उसके व्यक्ति कोई तारक बुद्ध भी ऐसा हो सकता है जो सनमात्र अवस्थासमभाव का पता लग सकता है. दिव्याहारी साधु तपस्वी या योगी न हो। उसने प्रश्न--सुबोधित या अंशहटा योगी क्य मार्ग को पूरी तरह समझा हैं उसके उपर समझने नहीं हो सकता । हो सकता है कि वह ज्ञान में का असर भी हुआ है पर परिस्थितियों ने उसे दिव्या- कम हो पर संयम में इतना बढ़गया हो कि उसमें हारी आदि नहीं बनने दिया है, पूरी तरह अवस्था- योग के भी चिन्: प्रगट हो गये हों तो वः योग समभावी नहीं बन पाया है। जीवन संग्राममें क्यों नहीं ? रहने के कारण व्यक्तिसमभावी भी नही हो पाया उत्तर-ज्ञाननें कम होनेपर भी अगर कोई योगी बनगया है तो समझ लेना चाहिये कि उसने उतर- जो बुद्ध है, जिसने कल्याण पथका असली सत्यके दर्शन पालिये इसलिये वह बोधितबुद्ध श्रेष्ठ और पर्याप्त ज्ञान पालिया है उसका जीवन या प्रत्येक बुद्ध होगया है । बुद्ध होने के लिये यह योगी बने बिना नहीं रह सकता। अन्यथा मानना जरूरी नहीं कि व: पांडित्य में भी संचार का चाहिये कि उसने कल्याणपथ का पूरा या पर्यात बड़ा ज्ञानी है । पांडित्य में कम होने पर भी सत्यज्ञान नहीं पाया। देशकाल की परिस्थिति के कारण दर्शन हो जानेपर वह बुद्ध हो जायगा । इसलिये दिव्याहार वगैरह में कुछ शिथिलता हो सकती है सुबोधित या अंशदृष्टा को योगी होनेपर बुद्ध है पर दियाहार आदि का स्वरूप भी देशकालके कहना चाहिये । अनुसार बनता है। एक तारक बुद्ध को राज्यका भी हर एक आदमी तारक नहीं बनसकता, न संचालन करना पड़ता हो तो उसके दिन्याहार इस बात की जरूरत है, दुनिया में हजारों तारक तपस्वपिन आदि के बाहरी रूममें भी फर्क होगा, बुद्रों की जगह भी नहीं है । स्वयबुद्ध जितन चाहे वह अपनी परिस्थिति के अनुसर दिव्याहारी माधु हो जाय कुछ अड़चन नहीं है पर वे भी अधिक तपस्त्री योगी अवश्य बन जायगा। व्यक्तिसमभाव नहीं हो सकते । बोविन बुद्ध अधिक हो सकते और अवस्थासमभाव के भी असंख्य रूप हैं हैं वे अधिक से अधिक हो इस की जरूरत है। इमलिये सभी बुद्ध एकसे समभावी न हों तो कोई संसार बोधितबुद्धा से भरजाय यही हमारी आश्चर्य नहीं, पर वे पर्याप्त मात्रामें व्यक्तिसमभावी आदर्श स्थिति है। जिमदिन संसार के अधि. और अवस्थासमनाची होते हैं । व्यक्ति सननावका कांश नागरिक ( स्त्री पुरुष ) योगी या बुद्ध होंगे यह मतलब नहीं है कि मनुष्य सज्जन दुर्जन, गुणी उसी दिन समझना चाहिये कि भगवान सत्य और निर्गुण, उपयोगी अनुपयोगी का विवेक न रखे, न भगवती अहिंसा का साम्राज्य स्थापित हो गया।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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