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________________ ४१९ । सत्यामृत भी तो उस पर यहां जोर देने की जरूरत नहीं उसकी उपयोगिता की दृष्टि से उसका विचार निःहै । यहां पर श्रम से हमारा मतलय मुख्यरूप से संकोच होकर करना चाहिये । अनावश्यक श्रम शीरिक श्रम है। के प्रदर्शन से श्रम का काम तो होता नहीं है मानव समाज के अधिकांश व्यक्ति शारीरिक साथ ही श्रमी होने का झूठा अहंकार आजाता है। दृष्टि से आलस्य के पुजारी हैं, और बहुत से इसलिये श्रम का ऐसा अभ्यास करना चाहिये कि आदमी शरीर-श्रम को नीची निगाह से देखते हैं। जिससे हमारा शररि दूसरों की सुविधा बढ़ावे, मानव समाज का यह बडा भारी दुर्भाग्य है। दूसरों के काम का और ख़र्च का बोझ कम करे, इससे मनुष्य में झूठा अहंकार पैदा होता है, एक और हमारे जीवन में एक तरह का स्वावलम्बन का जीवन दुसरे पर बोझ बनता है, जिन पर आ जाय । बाझ पड़ता है उनका अतिश्रम से और जिनका ८ दम-इंद्रियाका दमन करना, उन्हें अपने बोझ पड़ता है, उनका अश्रम से स्वास्थ्य खराब वश में रखना दम है । इद्रियाँ यों तो पांच बताई हो जाता है, आलस्य के कारण बहत से काम जाती है स्पर्शन, जीभ नाक, आँख और कान, अव्यवस्थित अधरे रह जाते हैं या बिलकल नहीं पर दम से दो बातों की मुख्यता है । एक शील हो पाते, या द्वेष असन्तोष और घृणा बढती दुसरा रसविजय | स्पर्शन-इंद्रिय का एक मुख्य है, इस प्रकार मानव-जीवन की अनेक तरह से भाग है लेङ्गिक इन्द्रिय । इस को वश में रखना बर्बादी होती है । शील है । जीभ को वश मे रखना रस-विजय है। लैङ्गिक इन्द्रिय और जीभ सभी प्राणियों में बहुत कौटुम्बिक अशान्ति का एक बड़ा भारी तीव्र रहती हैं । लैङ्गिक इन्द्रिय इतनी वश में तो कारण श्रम का न होना है । मैं तो इतना काम रहना ही चाहिये जिससे मनुष्य व्यभिचार से बचा करता हूं वह तो करता ही नहीं, इत्यादि बातों रहे पर अभ्यासी को इसका भी अभ्यास करना को लेकर झगड़े होते हैं, कुटुम्ब नष्ट हो जाता है । चाहिये कि अतिभोग न होने पावे। जिससे स्वास्थ्य अपनी अपनी योग्यता के अनुसार सभी को श्रा और कर्तव्य में बाधा पडे उसे अतिभोग समझना करना आवश्यक है। चाहिय। ___ श्रम स्वास्थ्य के लिये भी ज़रूरी है। जो लोग दम में दूसरी बात जीभ को वश में रखने श्रम नहीं करते वे बीमार होकर जितना कष्ट की है । भोजन का ध्येय शरीर को स्वस्थ और भोगते हैं उसकी दशमांश भी सुख आलस्य में सबल रखना है, जीभ इसलिये है कि इस से नहीं पाते। भक्ष्य अभक्ष्य की पहिचान की जा सके । जीभ श्रम जीवन में हर तरह उपयोगी है इसलिये का और भोजन का मुख्य उपयोग यही है । हा, श्रम की प्रतिष्ठा करना चाहिये । श्रम की प्रतिष्ठा अगर अपने और दूसरे के हित में बाधा न आवे का यह मतलब नहीं है कि किसी स्वास तरह के तो स्वाद का सुख भी लिया जासकता है पर श्रमपर प्रतिष्ठा की आप मारकर प्रदर्शन के लिये स्वाद के वश में न हो जाना चाहिये । स्वाद के वह किया जाय । श्रम प्रतिष्ठित हो या अप्रतिष्ठित, लिये अनीति करना पडे पक्षपात दिखाना पडे
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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