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________________ कल्याणपथ दान, इसमें प्रायश्चित्त न हुआ । अतिग्रह के अनुसार ही दान होना चाहिये तब प्रायश्चित्त होगा | बहुत से लोग दान इसलिये करते हैं कि प्रतिष्ठा आदि बढ़ जाने से अतिग्रह का अधिक अवसर मिले। उनका दान दान नहीं है किन्तु व्यापारिक विज्ञापन है, व्यापार धंधे की एक चाल है । असली और पवित्र दान उनका है जिनने पूरी ईमानदारी से वन पैदा किया है, समाज के नियमों का दुरुपयोग नहीं किया है अपनी मिह - नत और सेवा से धन कमाया है फिर विवेकपूर्वक बिना किसी की प्रार्थना के समाजहित के काम में यश की मुख्यता के बिना धन खर्च किया है । पवित्रदान के इन विशेषणों में से जो विशेषण कम होगा दान का मूल्य भी उसके अनुसार कम हो जायगा | फिर भी सामर्थ्य होने पर हर हालत में दान करना ही चाहिये क्यों कि इससे कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा | थोड़ी बहुत अपनी या दूसरों की भलाई हो ही सकेगी । [ ४ १६ २ सेवा - दूसरा अभ्यास धर्म सेवा है । इसका विवेचन परिचर्या नाम के तप में किया गया है। सेवा भी बहुत जरूरी धर्म है इसका अभ्यास तन और मन दोनों से करना चाहिये । दान का मुख्य उद्देश्य धन के बटवारे की विषमता को यथाशक्य कम करना और समाज हित के ज़रूरी कामों में सहायता पहुँचाना है । पाप से पैसा पैदा किया जाय तो दान से सारा पाप न धुलजायगा फिर भी कुछ न कुछ अवश्य धुलेगा | इसलिये दान में इतना विचार करके कि दान के दुरुपयोग से समाज में पाप दुःख अनाचार तो नहीं फैलता है, हर हालत में जितना दान दिया जा सके अच्छा है। हां, पवित्र दान के लिये जो विशेषण बताये गये हैं उनको पूरा करने की जितनी अधिक कोशिश की जाय उतना ही अधिक स्वपर - कल्याण बढ़ेगा | शरीर में ताक़त रहने पर भी जिस कामका अभ्स नहीं रहता उसे करने में कठिनाई जाती है इसलिये परिचर्या का थोड़ा बहुत अभ्यास बना रहे तो अच्छा । पर तन की अपेक्षा मन के अभ्यास की ज्यादह ज़रूरत है | सेवा करने से इज्जत कम हो जायगी, आदि अनेक भ्रम मन में बैठजाते हैं। ये भ्रम निकाल देना सेवा का मुख्य अभ्यास है । इसके अतिरिक्त भी सेवा का अभ्यास करना चाहिये जिस से हमारा शरीर उस के अनुकूल नसके, उसमें सहिष्णुता आजाय । ३ विनय - विनय भी एक अभ्यास धर्म है । तपके प्रकरण में त्रेसठ प्रकार का विनय बताया गया है उसीका यथाशक्ति अभ्यास करना चाहिये । विनय शिष्टाचार का प्राण है। विनय मन की वह वृत्ति है जे। प्रेम और गुणग्राहकता से तथा अहंकार को हटाने से पैदा होती है । उसके होने पर शिष्टाचार का पालन प्रायः आप से होने लगता है । विनय न हो तो शिष्टाचार का बड़ा ख़याल रखना पड़ता है इसलिये शिष्टाचार बोझ होजाता है । हां, यह बात अवश्य है कि शिष्टाचार भी भाषा की तरह सीखना पड़ता है । कहीं पर कोई कार्य शिष्टाचार के खिलाफ समझा जाता है, इसलिये बालकों को या बड़ों को नई जगह में जाने पर शिष्टाचार के नियम सीखना चाहिये या उन्हें सिखाना चाहिये ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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