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________________ ४१५ । सत्यामृत - अपनी ही प्रेरणा म दान देना चाहिये । और जल्दी दे देना चाहिये उसे रोककर दान का .. दान को पहँचाने में विलम्ब न करना चाहिये न मूल्य कम न करना चाहिये । दृमरों से परिश्र- बागना चाहिये, जितना परिश्रम दान के इन सब निमित्तों का विचार कर कराया जायगा उतना ही मूल्य कम हो जायगा । के उत्तम दान देना चाहिये । प्रश्न- हम किमी को दान देना चाहते थे इस में सन्देह नहीं कि दान हमारे मुख्य पर इतने में उसने या किमी ने अनुरोध कर दिया कर्तव्यों में से है, हमारे भीतर दान की भावना तो अपने दान का मूल्य कम न हो जाय इसलिये रहना चाहिये पर दानी बनने के लिये अन्याय हमारा विचार होगा कि उस समय हम दान न दें से धन पैदा करना ठीक नहीं। बाद में अपनी कला से दान दें, अथवा उम समाज के लिये दानी होना इतने गौरव की जगह दान न दें मरी जगह अपनी इच्छा से दें। बात नहीं हैं जितने गौरव की बात अन्यायी और पीडितों का न होना है। धन के विनिमय के उत्तर--डम तरह की वंचना से हम दुनिया नियम कितने ही अच्छे बनाये जायें अगर की आंग्वों में धूल झोंक सकते हैं वह भी सौ में सुव्यवस्था और समुन्नति होगी तो विनिमय एकाध जगह सो भी बड़ी मुश्किल से, पर सत्ये के नियमों के पालन करने पर भी कहीं जरूरत इवर की आँखों में धूल नहीं झोंक सकते । अगर से और कहीं ज़रूरत से ज्यादा सम्पत्ति हो ही हमार मनमें स्वेच्छा से दान देने के भाव थे तो जायगी । वह विषमत. दान में दूर करना चाहिये। दसरे के अनुरोध से भी उसका मूल्य कम न होगा और भाई चारा स्थापित करने के लिये भी दान इसलिये हमें उस जगह दान रोकने की कोई करना चाहिये। जरूरत नहीं है । मन में दान का भाव नहीं एक तरह से दान को हम अतिग्रह का था पर दूसरे की प्रेरणा से पैदा हुआ तो तुम्हां प्रायश्चित्त कह सकते हैं फिर भी प्रायश्रित और दान का मूल्य उतने अंश में कम होकर दूसरे को साधारण दान में अन्तर है । जिस पाप का प्रायमिल ही गया, अब भले ही तुम चित्त किया जाता है प्रायश्चित्त के बाद उसका त्याग उस ममय दान न देकर दूसरे समय दो या उस जगह करना जरूरी है । इसलिये दान के बाद दुरर्जन का दान न देकर दूसरी जगह दो । बल्कि दूसरे की त्याग किया जाय तो प्रायश्चित्त होगा। बार बार मफल और उचित प्रेरणा को स्वीकार न कर के पाप कर के बार बार प्रायश्चित्त करने में प्रायश्चित्त कृतघ्नता का पाप और सिरपर लाद लिया गया। नष्ट हो जाता है, और यह विचार कि दान से इस प्रकार वञ्चना करने से दान का मूल्य ते प्रायश्चित्त हो ही जायगा मन चाहा अतिग्रह कम हुआ ही साथ ही कृतघ्नता हुई और दुमरे करते चलो, दान को व्यर्थसा बना देता है । के उचित अनुरोध को स्वीकार न करके तुमने इसलिये दानी दुरर्जन बन्द करके जब दान करता कुछ जुदाई पैदा की । इसलिये यही ठीक है कि है तब प्रायश्रित्त होता है। किसी की प्रेरणा से अगर दान देने का भ व फिर प्रायश्चित्त की भी मर्यादा है । लाख आया तो जितनी जल्दी दिया जा सके उतनी रुपये का अतिग्रह और हजार पाँचसौ रुपये का
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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