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________________ कल्याणपथ [४०४ ८- मंदिर मसजिद गिरजाघर आदि सभी ६ - किसी को जाति के कारण अछ्न धर्मस्थानों को आदर की दृष्टि से देखना। नएमझन।। ९-धर्म के मूल ग्रन्थों का आदर रखना ७- जाति के कारण किसी को किसी धार्मिक और विवेक के साथ जितनी अच्छाई उनमें से ली क्रिया से न रोकना। जासके लेना। ८- कुलमें व्यभिचार आदि का दूषण होने १०- सब धर्मों के पैसे महात्माओं का, से किसी को नीच न समझना, न उसके धार्मिक जिनने मानव-हित के लिये जीवन अर्पण किया या सामाजिक अधिकार छीनना । है आदर रखना, उनका विचार करते समय - स्त्री या पुरुष के विशेषाधिकारों को पक्षपात से काम न लेना । दूर करने की कोशिश करना । (हां, सुविधाके सर्व जाति समभाव का भी विवेचन लक्षण अनुसार कार्यक्षेत्र में विभाग करने या शिष्टाचार दृष्टि अध्याय में किया गया है, यहां कुछ के कुछ नियम रखने में कोई हानि नहीं है । व्यवहारोपयोगी आवश्यक सूचनाएँ दीजाती हैं। गुणका सन्मान करना उचित है)। १- मनुष्यमात्रको फिर वह किसी भी रंग का १०- अपनी भाषा और बंप का अहंकार हो किसी देश का हो किसी भी नस्ल का हो- या मोह न रखना। एक जाति समझना। प्रश्न-सान्द्र यिक और जातीय हर तरह २-- पितृ परम्परा से या संगति आदि के के वर्ग अगर मिटा दिये जायेंगे तो जीवन में संघर्ष कारण किसी क्षेत्र के या किसी वर्ग के मनुष्यों नष्ट हो जायगा । संघर्ष-हीन जीवन निरुत्साह हो में कोई अच्छी या बुरी विशेषता पाई जाती हो जायगा जिसे जड़ भी कह सकेंगे। तो भी यह विश्वास रखना कि उनकी अच्छी उत्तर--आनन्द के लिये भी संघर्ष आवविशेषता दूसरी जगह भी लाई जा सकती है और श्यक है पर उसके लिये सम्प्रदायिक और जातीय वरी विशेपता शिक्षण संगतिसे बदली जा वर्ग बनाने की आवश्यकता नहीं है । पति पत्नी सकती है। तो एक सप्रदाय एक जाति एक कुटुम्ब के होते ३-- व्यक्ति के दोषों को जातीय दोष का हैं यहाँ तक कि उनका व्यक्तित्व भी एक हो जाता रूप न देना और विश्वास रखना कि सब जातियों है फिर भी वे चौपड़ और ताश खेलकर संघर्ष में अपेक्षाकृत अच्छे या बुरे लोग रहते हैं। करते हैं एक दूसरे को जीतने की भी कोशिश करते ४- विवाह सम्बन्धमें दाम्पत्यके योग्य गुण हैं। जो संघर्ष, प्रेम विनोद उल्लास आदि के लिए मिल जायँ तो फिर जातिपाँतिका विचार न करना। उपयोगी है वह तो हर हालत में किया जा सकता ५- स्वच्छ और शुद्ध तथा अनुकूल भोजन है। स्कूल के बच्चे जब खेल के लिये दो दल की व्यवस्था होनेपर किसीभी जाति के मनुष्य के बनाते हैं तो क्या वहाँ दो जातियाँ या दो सम्प्रसाथ खाने में जातिभेद की दृष्टि से एतराज़ न दाय बनते हैं ? जाति आर सम्प्रदाय का छाप करना। लगाकर ऐसे आनन्दी संघर्षों को विपैला कदापि
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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