SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०३ ] है । इसकाम के लिये प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन या समय समय पर कुछ न कुछ दान निकालते रहना चाहिये और कम से कम वर्ष में एक बार या . जितने बार बन सके इतने बार वह रकम उन सच्चे जनसेवकों की सेवा में अर्पण कर अपने को धन्य समझना चाहिये । नम्रता के बिना सत्यकर्पण नहीं हो सकता । सत्य समाजार्पण - -सत्यसमाज वन्दन के प्रकरण में कल्याण पथ के पथिकों का उल्लेख हुआ है उनकी भलाई के लिये सुख शान्ति के लिये आदर सत्कार के लिये अपना धन खर्च करना सत्यसमाजार्पण है । आवश्यकतानुसार उन्हें भोजन कराना ठहरने के लिये जगह देना पूँजी आदि की मदद करना इस प्रकार बहुत से कान सत्य समाजार्पण में किये जा सकते हैं। I इस प्रकार वन्दन स्वाध्याय और दान करने से स्वदृष्टि की सद्वृष्टिता सच्ची साबित होती है, उससे दूसरों को बल मिलता है दूसरों से उसे बल मिलता है इस प्रकार पहिली श्रेणी में होने पर भी वह कल्याण मार्ग के पथिको में गिन लिया जाता है 1 सामाजिक सष्टि हो जाने पर जो मनुष्य सर्व-धर्मसमभाव सर्वजातिसमभाव और समाज सुधारक बन जाता है अपने जीवन में निर्भयता से ऐसी सामाजिकता भर लेता है, वह सामाजिक है । सर्वधर्मसमभाव का विवेचन लक्षणदृष्टि अध्याय में विस्तार से दिया गया हैं यहां तो सिर्फ ऐसी सूचनाएँ कर दी जाती है जिससे सर्वधर्मसमभाव का व्यावहारिक रूप समझ में आ जाय और उसका पालन किया जा सके । सत्यामृत १ - साधारणतः धर्मों को अपने समय और अपने देश की ऐसी क्रान्ति समझना जिसने लोगों की नैतिक उन्नति की और मानवहित की दृष्टि से सामाजिक क्रान्ति की । हिन्दू धर्म इसलाम, जैनधर्म बौद्धधर्म ईसाई धर्म आदि ऐसे ही धर्म है । २ - जो सम्प्रदाय किसी मुख्य धर्म के भीतर या कबीर पंथ आदि की तरह बिलकुल स्वतंत्र हो, किन्तु जो सिर्फ़ किसी दार्शनिक प्रश्न की मुख्यता को लेकर खड़े हुए हो अपने समय की सामाजिक समस्याओं को सुलझाने का कार्यक्षेत्र जिनका मुख्य रूपमें न रहा हो, उनपर सर्वधर्मसमभाव की शर्त लागू न करना उन पर सिर्फ दार्शनिक या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करना । मतलब यह कि अन्य सम्प्रदाय आदि के नाम से भूलने की जरूरत नहीं है, विवेक से काम लेना चाहिये । ३- ' हमारे धर्म से भिन्न जितने धर्म हैं वे मिथ्या है' इस प्रकार विचार दिल में भी न लाना । ४ - किसी धर्म पर विचार करते समय उसके बारे में पहिले से सहानुभूति रखना और पक्षपात न आने देना । ५ - किसी सम्प्रदाय के सिद्धान्त ठीक न मालूम हो तो भी जहां तक बने शिष्टाचार का पालन करना । ६ - प्रार्थना पूजा नमाज़ आदि ऐसी धर्म क्रियाओं में जिनमें पशुवध आदि कार्य नहीं होता शामिल होने की कोशिश करना । ७ – किसी भी धर्म के अनुसार प्रार्थना कर लेने पर समझ लेना कि मेरे धर्म के अनुसार प्रार्थना हो गई। संगठन आदि का कोई विशेष उपयोग हो तो उसके बाद अपनी प्रार्थना भी की जा सकती है। spiran
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy