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________________ ३८७ ] सत्यामृत टीका आदि की जाती है । व्याख्यान एक तरह .. आलोचन-स्पष्ट शब्दों में अपनी भूल स्वीकार का विस्तारण ही है । पर उपदेश का मूल्य कर लेना । इस से अमनी लधुता तो प्रगट होती अधिक है। उपदेश आत्मनिरीक्षण के बाद की है पर अपने और दूसरों के मन का मैल निकल चीज़ है । उपदेश में वास्तविक दिशा दिखा कर जाता है । इससे दोनों को शान्ति मिलती है । जीवन की दिशा बदलने की कोशिश की जाती वह भल दूसरी बार नहीं होती । लधुता प्रगट है । यह कार्य उसी के लायक है जो उस दिशा होने से डरना न चाहिये लधु होने से डरना . में खुद चला हो । व्यवहार में व्याख्यान और चाहिये । लघु हो गये तब लघुता प्रगट होने में उपदेश में भेद नहीं माना जाता, पर ये दोनों संकोच क्या ! फिर हम आलोचना करें या न करें बातें जुदी जुदी हैं और इनके मूल्य में भी अन्तर दसर हमारी भलको जान ही लेते हैं । और है । लोकहित के लिये उपदेश देना महाम तप अवसर पड़ने पर कह ही देते हैं । अगर वे कह . है । नाम के लिये धंदे के लिये व्याख्यान देना न सकें फिर भी उस भलके कारण मन ही मन तप नहीं है । हां, वह एक धंधा हो सकता है घृणा करते हैं, हँसते हैं, निन्दा करते हैं । और यह धंधा तब तक निन्दनीय नहीं है जब आलोचना करने से घृणा निन्दा और हँसी को तक कोई मनुष्य सत्य की अवहेलना न करे। बहुत कम जगह रह जाती है। बहुत से लोग इस आठ प्रकार की ज्ञानचर्या से भगवान अपराध करते हैं और उसे समझ जाते हैं और सत्य और भगवती अहिंसा की उपासना और मन ही मन पछताते हैं पर आलोचना नहीं करते, साधना होती है। ज्ञानचर्या से कालमोह स्वत्व- तो इस से बड़े बड़े अनर्थ हो जाते हैं । जिसका मोह आदि मोह मर जाते हैं, आत्मनिरीक्षण से अपराध हुआ है वह तो मन ही मन पछताने की अपने असंयम का पता लगता है इसलिये बात को जानता नहीं है आलोचना के अभाव में अमंयम को दूर करने की चेष्टा होती है, विस्तारण वह तो उन्हें अपराधी समझता ही रहता है और निर्माण उपदेश आदि से दूसरों की उन्नति भी समझता है उन्हें घमंडी, लापर्वाह और हिंसक । की जाती है । इसलिये ज्ञानचर्या स्वपरकल्याणकारी इस प्रकार वैर बढ़ता ही जाता है। आलोचना में है। सब तपों का मूल होने से यह पहिला जितनी देर होती है वैर की अग्नि हृदय में उतनी तप है। अधिक बढ़ती जाती है तथा स्थायी होती जाती प्रायश्चित्त को दूसरे शब्द में हम भूल सुधार है । इसलिये आलोचना शीघ्र स्पष्ट और निष्ठल ह कह सकते हैं । अपनी भूल सुधार लंना और हृदय से करना चाहिये । .... उस भूल से जो बुराई पैदा हुई हो उसको यथा- .. क्षमायाचन--यह आलोचन से भी अधिक . शक्य दूर करना प्रायश्चित्त है । इस तपस्या से शक्तिशाली प्रायश्चित्त है । साधारण सी भूलोंके मनुष्य निर्वैर होता है शुद्ध होता है । इसके चार सुधार में आलोचन काम कर जाता है, पर जब भेद हैं--आलोचन, क्षमायाचन, प्रतिदान • भूल कुछ विशेष मात्रामें होती है तब तक इसके और परिज्ञापन। लिये क्षमायाचन करना -[ माफी मांगना]-आव
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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