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________________ ८५] 2सत्यामृत ही दिया फिर भी वह तप था क्योंकि वह सीखता है । दूसरा से सीखने का मुख्य फलता के मार्ग में था। द्वार हे भाषा, और भाषा का उपयोग प्रायः सुनने बोलने से होता है । इसलिये सुनना पहिली ज्ञान१-ज्ञानचयाँ चया है। व्याख्यान सुनना, शास्त्र सनना आदि सत्य प्राप्ति के लिये यह परम उपयोगी है। भी तप हैं, इस से मनुष्य काफी ज्ञान बढ़। चर्या में मन को वश में रखने की, उसे एक सकता है। 5 लगाने की बहुत जरूरत होती है । मन प्रायः हर एक आदमी को यह तप करना परिश्रम भी काही करना पड़ता है । ज्ञान चाहिये । जा पढ़ लिख नहीं सकते उनके लिये से दूसरों को भी ज्ञान पहुँचाया जाता है तो यह उपयोगी है ही, साथ ही और सब क अपना विकास होता है, इस तरह ज्ञान लिये भी उपयोगी है। • स्वपर-कल्याण के लिये उपयोगी है। हां, समय बिताने के लिये किसी भी तरह ज्ञानचर्या जहां स्वपर कल्याणकारी है वहीं बह । की गपशप सुनना वप नहीं है। यह तो एक कही जासकती ह । अगर विश्वहितकी उपेक्षा तरह का काम है जो उचित है। तो अच्छा है र स्वार्थ के लिये है तो तप नहीं है अगर दूसरों अनुचित हो तो पाप है द्वेष अहंकार वश दूसरो अकल्याणा के लिये है तन्त्र तो कुनप है, की निन्दा सुनना आदि पाप ही है। २-पूछना-जानने की इच्छा से किसी से - जान से सुख भी है और दुख भी है । 'जब पछना भी ज्ञानचर्या नाम का तप है इससे भी बतष्य ने ज्ञानवृक्ष का फल खाया तब से वह झान बढ़ता है। इस तप के लिये निःपक्षता आर हो गया. ईश्वरीय राज्य से वह अलग हो जिज्ञासा जरूरी है। परीक्षा लने के लिये पूछना , इसप्रकार का वर्णन जो यहूदी ईसाई आदि पृच्छा (पूछना ) नामका तप नहीं है । वादविवाद अन्थों में मिलता है उसका मतलब यही है करने के लिये पछना भी पृच्छा नाम का तप जित ज्ञान को मनुष्य पचा नहीं सकता नहीं है। । उसके दुःख ही बढ़ते हैं । इसलिये ज्ञान प्रश्न - अध्यापक विद्यार्थी को प्रश्नपत्र देता पचाना चाहिये, उमे असमय का कारण न है जाँचता है इससे विद्यार्थी को लाभ होता है । ना चाहिये। अध्यापक को इसमें काफ़ी श्रम करना पड़ता है ज्ञान चर्या के आठ भेद हैं। १ सुनना [श्रवण क्या अध्यापक की इस मिहनत को तप न कहा छना, (पृच्छा) ३ पढ़ना (पठन) ४ विस्तारणा जाय ? विचारणा (चिन्तन ) ६ आत्मनिरीक्षण, उत्तर-अवश्य कहा जाय, पर यह पृच्छा निर्माण, ८ उपदेश । नाम का तप नहीं है किन्तु पूछना भी पढ़ाने का सुनना-साधारणतः ज्ञानप्राप्ति का एक अंग है इसलिये इसे विस्तारण नाम का तप लोहार यही है । मनुष्य समाज से बहुत कुछ कहा जायमा ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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