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________________ ३८३ ] सत्यामृत अमुक चीजें ही खाऊंगा या सिर्फ अमुक चीज़ों है पर अमुक चीज़ अतिपरिणाम में खाने से मनुष्य का ही उपयोग करूंगा, अथवा यह प्रतिज्ञा लेले निश्चित बीमार पड़ते हैं पर व्यसन होने से नहीं कि अमुक अमुक चीजें न खाऊंगा ! इस प्रकार छोड़ सकते । ऐसी चीजों का त्याग करना चाहिये । की प्रतिज्ञाएँ लेने से इतना लाभ अवश्य होगा कि इन सचनाओं से अतिभोग समझा जासकेगा उसका ध्यान बहुत चीजों में न जायगा किसी और उसके त्याग से निरतिभोगका पालन हो जायगा । को उसके लिये विशेष आयोजन भी न करना पड़ेगा। निरतिभोग अपनी ऐहिक भलाई के लिये भी उचर-इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ व्यर्थ हैं। आवश्यक है साथ ही इसमे दूसरों की भी रक्षा त्याग सिर्फ उन्हीं चीज़ों का करना चाहिये जो होती है । निरतिभोग से जो चीज़ बचेगी वह दुर्भोग हैं, या अस्वास्थ्यकर हैं या अत्यन्त अरु दूसरों के काम में आयगी । समाज में ऐसे बहुत चिकर हैं । बाकी दूसरी चीज़ों के खाने न खान से प्राणी हैं जो अपना हिस्मा नहीं पा पात निरकी प्रतिज्ञा करने से बहुत आरम्भ बढ़ता है, लोगों तिभोग स हम उनके लिये कुछ हिस्सा छोड़ते हैं की परेशानी बढ़ती है। जो चीज़ तुम नहीं खाते इसलिये निरतिभोग को उपसंयम कहा है। वही घर में है इसलिये दूसरी चीज को ढूँढने, लाने, बनाने में बहुत कष्ट होता है और हानि संयम का तो मनुष्य को पालन करना ही होती है । इसलिये सब से अच्छी बात यह है कि चाहिये पर इन उपसंयमों पर भी उपेक्षा न मौके पर जो मिल जाय वही ले लीजाय दुर्भोग, करना चाहिये । इनके बिना स्वपरकल्याण अस्वास्थ्यकर, अरुचिकर की बात दूसरी है। काफी अधूरा रहेगा। कभी कभी सामाजिक दृष्टि से कोई कोई उपसंयम संयम के समान ज़रूरी ३-इतना भोग किया जाय कि जीवन निर्वाह हो जाता है संयम के समान उसका महत्त्व बढ़ के बदले में उचित सेवा भी न दी जा सके। जाता है. संयम के भंग से उसका भंग अधिक जैसे बहुत से लोग रागरंग में समय बिताते रहते दष्फल पैदा करता है। उँगलियों के कट जान है बैठे बैठे पुरुखों की कमाई खाते हैं या दूसरों पर जैसे हाथ पैर का उपयाग बहुत कम रह के भरोसे गुज़र करते हैं। जाता है उसी प्रकार उपसंयम के नष्ट होने पर : ४-ऐसा भोग करना कि अस्वाभाविक रूपमें संयम का उपयोग भी कम हो जाता है, इसलिये स्वास्थ्य खराब हो जाय । साधारणतः मनुष्य कभी उपसंयम प्राप्त करने के लिए भी अधिक से • कभी अस्वस्थ होजाया करता है वह बात दूसरी अधिक काशिश करना चाहिये ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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