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________________ ३६९ ) सत्यामृत की जीत निर्भर है उसी प्रकार सहा में भी कुछ लगता हूं महल बनवा लेता हूं थोडा लांच घूर लोगों की हार पर कुछ लोगों की जीत निर्भर है। के रूप में धर्म संस्थाओं को, मन्दिर मसजिदों के जब कोई एकाध व्यक्ति सट्टे में लखों करोडों देकर पूजा और यश भी खरीद लेता हूं, सिः कमाता है तब दसेर सकडों सटोरिये कंगाल हो पीटने के लिये दूसरा पक्ष रह जाता है। लाखे जाते हैं । बहुतों को कंगालियत पर किसी एक कमाने में मैंने दुनिया की क्या भलाई की और सटोरिये का श्रीमान होना निर्भर है। इस प्रकार खोने में मैंने क्या पाप किया जिसका दंड यह की मफ्तखोरी और आर्थिक हत्या जूवे में ही मिला, इसका कोई उत्तर नहीं है । इसलिये सट्टा व्यापार में नहीं। मुफ्तखोरी है जूवा है, सभ्य शब्दो मे उमे आर्थिक व्यापार में दोनों पक्षों का फायदा होता है। युद्ध कहा जा सकता है व्यापार नहीं। एक आदमी बड़े शहर से कोई चीज खरीदकर प्रश्र-जब सट्टा कानून से जाय न हो और छोटे शहर में कः नफा लेकर चता है तो उसका दूसरे लोग इसके द्वारा श्रीमान् बन गये हों तो फायदा तो है हनीय ग्राहक का भी फायदा अपने में योग्यता होते हुए भी उसका उपयोग है क्योंकि बड़े शहर में जाने की उसकी परेशानी क्यों न किया जाय ! बच जाती है। उत्तर- व्यभिचार से अगर कोई वेश्या इसी प्रकार एक आदमी बरसात के पहिले धनवान हो गई हो तो भी अन्य सुन्दरियों के लिये अनाज खरीदकर सुरक्षित रखता है और बरसात वेश्या-जीवन अनुकरणीय न होगा, क्योंकि इससे में या बरसात के बाद कुछ नफा लेकर बेंचता है बहुत-सी स्त्रियों को घृणित, जीवन विताना तो उसका लाभ है और ग्राहक का भी लाभ है पड़ता है और सैकड़ों घरों की तबाही होती है, क्योंकि उसे समय पर जरूरत के अनुसार चीज यही हाल सट्टे का है। दूसरी बात यह है कि भिजाती है अन्यथा वह बरसात में खेड़े में सट्टे में जीतने का दावा बहुत कम लोग कर सकते अनाज लेने कहा जाता है इस प्रकार व्यापार है, बड़े बड़े होश्या' सटोरिये भी अन्त में भिखदोनों की सुविधा के लिये होता है, दुकानदार मंगे या दिवालिये होने देखे गये हैं । इसलिये सद्दे और ग्राइक दोनों ही अपनी अपनी दृष्टि से का द्वंदयुद्ध खेलना किसी को भी लाभदायक उसने न उठाते हैं पर सट्टे में दोनों ही एक नहीं है। मानलो कि सैकड़ों आदमियों की हत्या दसो को इर.ना चाहते हैं। मैंने तुमसे हजार करके उनकी हड्डियों से एक आदमी ने अपना द, मट का है या अभी इस दुनिया महल बनवा लिया तो क्या यह दूसरों को अनुमें है या नहीं मुझे नहीं मान, माल की मुझे करणीय होगा ! मनुष्य अगर ईट-चून का उत्पादन जरूरत नहीं है, दान मैंने उतने ही दिये है जितने न करके मनुष्य-हत्या करे और उनकी हड्डियों से से भाव अगर घट जाय तो उसका घाटा चुकाया मकान बनावे तो एक न एक दिन उस हडियो जा सके। आगे यदि भाव घटा तो डिपाजिट का के महलबाले की भी हड्डियाँ किसी दूसरे के महल रुपया देकर सिर पीट लेता हूं भाव अगर बढ़ा बनने में लग जायगी सामूहिक रूप में उस समाज हो मुफ्त में हजारों खानों देकर मोटरे दौड़ाने का नाश होगा । ऐसी जंगली जातियाँ हैं जिनमें
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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