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________________ भगवती के उपांग [ ३५६ खर, वेश्या भी शीलवती हो सकती : नही है, जिम्मेदारी से भागना हे, और समाज की । पूर्ण करने के कारण समाज में इसमे दृग्ववृद्धि होती है इसलिये यह कुछ शीलवती बेदया को भी नहीं कह पाप अवश्य है और साध्येि इमे उपपाप कहा है। सकते पर पुरुष उपपापी अवश्य है, क्योंकि प्रश्न- बहुजन्य को उपचाप कहा जाय उसका वेश्यामेवन ममा जडित के कारण नहीं है, या नहीं ! असंयम के कारण है । शीलवनी के मिवाय अन्य उत्तर- ययाभिचार सम्बन्धी उपाय वेश्याएं ::::- है और जिमबी ने .. " का निर्णय , परिस्थिति के अनुसार ही के लिये नहीं जनहित के लिये नी किन्तु विषय- किया जाना चाहिये किन्तु जब विवशता के तष्णा को खराब देने के लिये कार कारण कोई राई समाज में घुमजाती है तब किया हो वह पापिनी है उमका व्यभिचार उप- ........: होने पर भी धर्म उस बुराई का पाप नहीं कहा जा सकता, वह पाप है । अगर चुपन हिंमा अहिंसा के अधार पर करता सार , बने तो उपपाप है। है। इसलिये बहुपक्षीय उपपाप है। पहिली पक्षी ?- अनमिन ....." का अर्थ है विना के प्रति वद विश्वासकान है। शादी किये हुए किमी को पति या पत्नी बनाना। जड़ी तक मुझे मालूम है यहां तक इम शादी अमुक विधिम होना चाहिये मी या प्रश्न से सम्बन्ध रखने की दृष्टि से दाम्पत्य बात नहीं है पर एमां का घपण अवश्य करनाम्या तीन तरह की है १- अभिन्न दाम्पत्य चाहिये जिससे समाज के आगे दाम्पत्य के व जन में एक पति और एक पनी होती है । यही कार प्रमाणित हो सके । मनमुटाव होने पर मावस्या उत्तम है ।२- .:. जहाँ किसी के आपत्ति में पड़ने पर दोनों में कोई अनेक माई एक स्त्री के साथ शादी करलेते है। या न कह सके कि हमारा इसका क्या रिश्ता ! भारतवर्ष विषय में प्रसिद्ध यह हमारा विवाहित पति या विवाहित पर्व नीतिब्बत में यह प्रथा रही है और आज भी है । अनगिन साहचर्य में अर्थात् किसी प्री ! यह अनुचित है फिर भी इमे उपाय नहीं को या पुरुष को रखैल बनाने में दाम्पत्य की कह सकते क्योंकि इस मे बहुपर्धा,स्व सरीम्बा रिसे भागने की चेष्टा करने का ... · नही किया जाता। है। जब तक देने मे अधिक लेना हुआ तब तक स म सब भाई या अनेक भाई मिलकर टीक, जब प्रतिसेवा करने का अवसर आया तब एक साथ एक नारी की चुनते हैं, नारी इस कार्य भगा दिया यह ल है इसलिये जब तक दापत्य में किसी पुरुष के साथ नहीं करती के पूरे बन्धन को दोनों स्वीकार न करे त तक इसलिये यह उपाय भी नहीं है फिर भी यह उनका सम्बन्ध एक तरह का व्यभिचार ही है। अभी प्रथा नहीं है क्योंकि इससे बहुतसी बिया हां, उस समय उन दोनों की रग है पतिहीन रह जायेंगा साथ ही इससे नारी के कार किसी तीसरे के अधिकार को धक्का नहीं लगता भी बढ़ सकते हैं, उचित परिमाण में प्रेम का इसलिये इसे न कहा । पर इस में परी .. .. नहीं हो सकता।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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