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________________ भगवती के उपांग 1३५४ - से जो उचित मालूम हो यह करना चाहिये जाती है उ अभागिनी करना चाहिय कर भी लेकिन पुरुष महान है और नारी हीन है इस जब तक उनके जीवन में कोई दूसरे पाप न हो दृष्टि से नारी को दुःखी करने की या उस के तब तक उन्हें याति के कारण पापिनी नहीं दुःख दूर करने में बाधा डालने की चटन का मते उन्ध उपाधिनः क मत है क्योंकि करना चाहिये। ___ के विषय में दाट-कार सम्बन्ध काटेती है। विवाहित है। में विस्तार से कहा गया है उममे समझ में यद्यपि विवाहिन परुष क माथ सम्बन्ध रखने आजाता है कि और बालीना को पापिनी ना चाहिये फिर भी में व्यभिचार की दृष्टि से कोई अन्तर नही ह म अन्य खियों का मनन अपराध मकतः । इस प्रकार उपाय नहीं उतनावमा का नहीं, क्योंकि ममान ने है । विवाह न करके विधवा या कमारी के म जिस नि की उसे ... है .. विधुर या कुमार का सम्बन्ध होना पाप है। सिया ...... के भेद पर जोर . .. ३- असहचर गमन से हन्टका उपपाप गया और इसको बनाने में भी वेश्यागमन । वेश्यागमन से जो अनेक दोष आ जाते या की कठिनाई है। यह . . ही इस हैं वह अलग बात है पर एक अमहनर अनि इंग की है कि समाज उन्हें इस तरह का भेद विवाह की सुविधा न मिलने पर वेश्यागमन कर करने के लिए विवश नहीं कर सकती कि तो यह उपपाप होगा। हां विवाहित ति. विवाहिनी को तुम अपने यहां न . अगर वेश्यागमन करे तो यह पाप होगा क्योंकि उनके ऊपर इस विवेक काटी जाय इस में चोरी अर्थात् अर्थघात और ये साफ है। है । विवाहित व्यक्ति का वेश्यागमन एक महान वृति अशी है या बुरी! अ नी मे उपपाय क्यों कहा जाय ! यदि प्रश्न- असहचर पुरुष वेश्यागामी हानी बरीत समाज ने इसके लिये अनुमति क्यों दी। उपपापी है पर स्वयं वेश्या क्या है ? प.पिनी या वृत्ति अछी तो नहीं है पर उपपापिनी ? उचर-वेक्ष्या पापिनी हो सकती है, होती उसकी अनुमति देना पड़ी है जिन पुरुषों का भी है, पर वेश्या अपने प्रेम से पापिनी विवाह नहीं हो पाया है वे अपनी याना नहीं है, क्योंकि समाज के द्वारा हुईया को शान्त करने लिये अन्य बिया पर नजर न अनुमोदित की हुई उम पर है । इस डाले इसलिये वेश्याओं की रचना कई है अगर में सन्देह नहीं कि जीवन का दु यजीवन वेश्याएँ. लियो की शीलरक्षा है और पाप के सारे द्वार ..., खुले .... हुए हैं कि अधिकांश वेश्याएँ उनमें खुले पिना , अगर पुरुषों में ऐसा उन्माद न होता जो नहीं रहपाती । जो वेश्यावृति के नाम अकरण कराना है, तो बेश्याओं की जरूरत
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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