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________________ धर्मकीर्तिके दो श्लोक बाणोंसे व्यासने समुद्रपर सेतु बनाया। फिर भी उनकी अतिशयोक्तिपर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करता; परंतु मेरे प्रबन्धकी, जिसमें शब्द और अर्थ मानो तौल-तौलकर रखे गये हैं, निन्दा करनेके लिए उनका मुँह सदैव खुला रहता है ! हे प्रतिष्ठे, तुझे नमस्कार है ! ] वाल्मीकि और व्यास चाहे जितनी अत्युक्तियाँ अथवा अतिशयोक्तियाँ करें तो भी उनके विरोधमें कोई एक शब्द भी नहीं निकालता था; क्यों कि राजे-रजवाड़ों तथा धनवानोंमें वे ऋषि समझे जाते थे और उनके विरुद्ध बोलनेसे विद्वानोंकी प्रतिष्ठा नष्ट होनेकी संभावना रहती थी। पर तरुण धर्मकीर्तिपर टीका-टिप्पणी करनेसे प्रतिष्ठा बढ़ती थी, "अरे, यह क्या वार्तिक लिखेगा ! बेचारेने न्याय कब पढ़ा, जो हो गया ग्रन्थकार !"- ऐसी टीका करनेसे पण्डितोंका सम्मान बढ़ता था। इसीलिए धर्मकीर्ति कहता है कि, “ऐ प्रतिष्ठे, तुझे नमस्कार है ! तू झूठको सच और सचको झूठ बनानेमें समर्थ है !" ऐसी बातें सभी जमानोंमें होती हैं। राजभवनोंमें जिन बातोंकी प्रशंसा होती थी उसे 'यथा राजा तथा प्रजा' के न्यायसे लोग मान लेते। मुसलमानोंके शासनकालमें जिस प्रकार पर्देकी प्रथा फैल गई, उसी प्रकार गुप्तोंके राजत्वकालमें रामायण और महाभारत काव्योंका प्रसार हुआ। पर उनका जोर प्रमाणवार्तिक जैसे जनसाधारणकी समझमें न आनेवाले ग्रंथ. लिखकर कम करना संभव नहीं था। बौद्धोंकी जातक जैसी कथाएँ यदि लोगोंको प्रिय हुई तो फिर ये काव्य क्यों न प्रिय होते ? धमकीर्ति जिस महायान सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखता था उस संप्रदायने तो हज़ारों बोधिसत्वों और देवी देवताओंकी कल्पना करके असत्यकथाओंमें काफ़ी वृद्धि की ! अतः,
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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