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________________ १८ पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म बूंदको भी कष्ट न देनेकी वह तपश्चर्या होती थी* । उनपर असत्य बोलनेकी नौबत ही न आती थी। वे अरण्यके फल-मूलोंपर निर्वाह करके रहते थे; अतः यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि वे चोरीसे अलिप्त रहते थे। वे या तो नग्न रहते थे या फिर बहुत हुआ तो वल्कल पहनते थे; अतः यह स्पष्ट है कि वे पूर्णरूपेण अपरिग्रहव्रतका पालन करते थे। परंतु इन यामोंका प्रचार वे नहीं करते थे। अतः ब्राह्मणोंके साथ उनका झगड़ा कभी नहीं हुआ। परंतु पार्श्वनाथने इन यामोंको सार्वजनिक बनानेकी चेष्टा की। उन्होंने और उनके शिष्योंने लोगोंसे मिलनेवाली भिक्षापर निर्वाह करके जनसाधारणको भी इन यामोंकी शिक्षा देना शुरू किया और उसके परिणामस्वरूप लोगोंमें ब्राह्मणोंके यज्ञ-याग अप्रिय होने लगे। महावीरस्वामी, बुद्ध एवं अन्य श्रमणोंने भी इस दयाधर्मका प्रचार किया आर इसीलिए श्रमणों और खासकर जैनों एवं बौद्धोंपर ब्राह्मणोंकी वक्रदृष्टि हुई। वास्तवमें केवल ब्राह्मणोंका विरोध करनेके लिए पार्श्वने इस चातुर्यामधर्मकी स्थापना नहीं की थी । मानव-मानवोंके बीचकी शत्रुता नष्ट होकर समाजमें सुखशांति रहे, यही इस धर्मका उद्देश्य था। परंतु पार्श्वनाथने अहिंसा तो ऋषि-मुनियोंसे ली थी; अतः उसका क्षेत्र मनुष्यजातितक सीमित करना उनके लिए संभव नहीं था। उन्होंने लोगोंसे कहा कि जानबूझकर प्राणियोंकी हत्या करना अनुचित है; और उस समयकी परिस्थितिमें साधारण जनताको यह अहिंसा पसंद आई । क्योंकि राजा लोग और सम्पन्न ब्राह्मण जबर्दस्तीसे उनकी खेतीके जानवर छीन लेते थे और यज्ञ-यागमें उन्हें बेशुमार कत्ल करते थे। * देखिए : भारतीय संस्कृति और अहिंसा, (वि. २।५-६ ५०३९) भगवान् बुद्ध पृष्ठ :६१ + देखिए, 'भगवान बुद्ध' दूसरा अध्याय ।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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