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________________ पार्श्वनाथकी कथा निवृत्त करनेका प्रयत्न किया तो उससे तेरा क्या अहित हुआ ? प्रभुका सदुपदेश भी तेरे बैरका कारण बन गया !" यह बात सुनकर मेघमाली डर गया और पार्श्वनाथकी शरण गया। पार्श्वनाथ वहाँसे वाराणसी पहुँचे और वहाँके उद्यानमें एक धातकी वृक्षके नीचे ठहरे । वहाँ, जिस दिन उनकी दीक्षाके ८४ दिवस पूरे हुए, उस दिन अर्थात् चैत्र कृष्ण चतुर्दशीको सुबह उनके घातिया कर्मोंका नाश हुआ और उन्हें केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ। । उस अवसरपर देव-देवियाँ, नर-नारियाँ और साधु-साध्वियाँ उन्हें नमस्कार करके यथोचित स्थानपर बैठ गई । वह वैभव उद्यानपालने देखा और उसने राजमहलमें जाकर नमस्कारपूर्वक अश्वसेनको कह सुनाया । अश्वसेन वामादेवीके साथ अपने पूरे परिवारसमेत पार्श्वनाथके पास गये और उन्हें नमस्कार एवं प्रदक्षिणा करके इन्द्रके पास बैठे। इन्द्र और अश्वसेनने पार्श्वनाथका स्तवन किया। पार्श्वनाथका धर्मोपदेश . इसके अनन्तर पार्श्वनाथने इस प्रकार धर्मोपदेश किया:-इस जरा-व्याधि-मृत्युसे भरे हुए संसाररूपी महारण्यमें धर्मके सिवाय अन्य त्राता नहीं है। अतः उसीका सहारा लेना चाहिए । यह धर्म दो प्रकारका है—सर्वविरति और एकदेशविरति + । इनमेंसे पहला संयम आदि दस __ + इसका वर्णन हेमचन्द्राचार्यने नहीं किया है। परंतु तत्त्वार्थाधिगमसूत्रमें सर्वविरतिके ये दस प्रकार दिये गये हैं :-क्षमा, मार्दव (मृदुता), आर्जव ' (सरलता), शौच (निर्लोभता), सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और असंग्रह, इन पाँच महाव्रतोंका समावेश होता ही है । इन पाँच महाव्रतोंका पालन गृहस्थ लोग पूर्ण-रूपसे नहीं कर सकते, अतः उनके इन व्रतोंको अणुव्रत कहते हैं ।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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