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________________ ११ विषय में समाजसे सलाह-मशविरा और आशीर्वाद प्राप्त करके ही मृत्युको स्वीकार किया जाय । परन्तु व्यक्ति-स्वातंत्र्यका विचार करते समय इसका भी विचार करना होगा कि क्या मृत्युके विषय में मनुष्य-समाज परतंत्र है ? घोड़ा, कुत्ता, गाय आदि पालतू पशुओं को उनकी अन्तिम सेवाके तौरपर मृत्यु देनेका धर्म आजकल स्वीकृत किया गया है । और कुष्ठ जैसे रोग से पीडित मनुष्यकी सब तरह से सेवा करनेके बाद बिलकुल अन्तिम सेवाके तौर पर उसे मरण देनेकी ज़िम्मेवारी समूचा समाज अपने ऊपर उठा ले या नहीं, इस विषयकी चर्चा जहाँ ज़िम्मेदार लोग कर रहे हैं वहाँ कोई यह नहीं कह सकेगा कि आमरण अनशनका अधिकार विशेष परिस्थितिमें भी मनुष्यको नहीं है । इसकी चर्चा होना आवश्यक है कि कौन-सी परिस्थितिमें मनुष्यको वह अधिकार प्राप्त होता है । इस निबन्धमें धर्मानन्दजी कोसंबीने जो विचार पेश किया है उसपर स्वयं अमल करनेका प्रयत्न करके उन्होंने इस चर्चाको जीवित कर दिया है । समाजको किसी समय इस प्रश्नकी सांगोपांग चर्चा करनी ही चाहिए । जिस प्रकार चातुर्याम सामाजिक जीवन-धर्म है, उसी प्रकार सल्लेखना सामाजिक मरण-धर्म है । दोनों मिलकर व्यापक समाजधर्म बनता है । धर्मानन्द कोसम्बीका यह विद्वत्तापूर्ण निबन्ध पढ़नेके बाद कई लोगों के मन में यह शंका जरूर उठ सकती है कि धर्म के कलेवरमेंसे यदि ईश्वर, आत्मा, परलोक, ईश्वरप्रेरित ग्रंथ, मरणोत्तर जीवन और पुरोहित वर्ग आदि सभी बातें निकाल दी जायें, तो धर्ममें धर्मत्व क्या रह जायगा ? क्या चातुर्याम, संयम और शरीर श्रमसे ही धर्म बन सकता है ? पिछली पीढ़ी के प्रारंभ में धर्म-अधर्मके वैमनस्यसे ऊबे हुए कितने ही लोग कहते थे कि उचित नीति- शिक्षा और नागरिकों के कर्तव्योंकी ही शिक्षा दी जाय और सभी धर्मों को शिक्षा और जीवनमें से निकाल दिया जाय । उनकी और धर्मानन्दजी कोसम्बीकी भूमिका में विशेष फ़र्क क्या है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यदि भूमिका शुद्ध हो, तो फिर यह आग्रह क्यों रखा जाय कि फर्क होना ही चाहिए ? सामान्य नीति -शिक्षाके विषय में उस समयके धार्मिक
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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