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________________ जानेपर झुंझलाकर देह-त्याग करना अनुचित है ।'-इस प्रकारका महात्मा गाँधीजीका अभिमत है। ___ वृद्धावस्था हुई है, हाथोंसे किसी प्रकारकी शारीरिक या मानसिक सेवा नहीं हो सकती, आत्मोद्धारके लिए आवश्यक साधनाका पालन करनेका सामर्थ्य भी नहीं रहा है, अब हम पृथ्वी या समाजके लिए केवल भाररूप बन गये हैं-ऐसा जिन्हें लगता हो उनके लिए सड़ते रहनेकी अपेक्षा प्रायोपवेशन करके मरणका वरण करना एक शुद्ध सामाजिक धर्म है । पांडव विदुर आदि पौराणिक व्यक्तियोंने इस धर्मका पालन किया है। स्वामी विवेकानन्द एक उदाहरण लिख गए हैं कि बंगालमें पावहारी बाबाने इसी प्रकार देह-त्याग किया था। कोई असाध्य और संक्रामक बीमारी हो जाय और उसमेंसे बचनेकी कोई आशा न रही हो, तो मनुष्य के लिए प्रायोपवेशन करके देह-त्याग करना उचित है । जिस प्रकार हर एकको इस बातकी चिन्ता रखनी होती है कि उसका जीवन समाजके लिए बाधक न बन जाय, उसी तरह इस बातकी चिन्ता रखना भी समाज-धर्मके अनुकूल ही है कि उसका मरण भी समाजके लिए बाधक न बने। सभी जगह यह माना जाता है कि आत्मघात करना एक सामाजिक अपराध है। सभी धर्मशास्त्र कहते हैं कि आत्मघात करनेवालेको मोक्ष नहीं मिलता, उसकी अधोगति होती है। अतः यह एक सवाल ही है कि कानून और धर्मशास्त्रकी इस दृष्टिके साथ उल्लिखित प्रायोपवेशन धर्मका मेल कैसे बिठाया जाय । मनुष्यको कभी न कभी अपने आप मृत्यु तो आने ही वाली है; परंतु उसे अपनी इच्छासे, चाहे जिस वक्त अपने ऊपर ले लेनेका अधिकार मनुपयको है या नहीं, यही प्रश्न इस चर्चाके मूलमें है। जो समाज मनुष्यसे कहता है कि 'तुम्हें आत्मघात करनेका अधिकार नहीं है। वह स्वयं अनेक अपराधियोंको मृत्युदंड देता है। इस परसे यह अनुमान निकाला जा सकता है कि जिसे जीनेमें कोई सार मालूम न होता हो, वह केवल अपनी इच्छासे मृत्युको स्वीकार न करे; बल्कि इस
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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