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________________ मारणान्तिक सल्लेखनावत १११ पार्श्वनाथके प्रचार कार्यसे इस प्रकार हिमालयके जंगलमें जानेका कोई कारण नहीं रहा । चाहे जहाँ देहत्याग करना संभव हो गया। उद्यानमें, धर्मशालामें, किसी पर्वत शिखरपर, नदीके किनारे अथवा समुद्रके किनारे, जहाँ अपना मन प्रसन्न रहे ऐसे स्थानमें निवास करके अनशनव्रत करना रोगग्रस्तों और जराग्रस्तोंके लिए सुलभ हो गया । लोगोंकी सहानुभूति इस व्रतको प्राप्त होने लगी। आजकल भी जैन साधु और गृहस्थ इस व्रतका कभी-कभी प्रयोग करते हैं; पर उसे एक विलक्षण स्वरूप प्राप्त हो गया है। किसी साधु या गृहस्थके द्वारा इस व्रतका आरंभ किये जानेकी खबर सुनते ही सैकड़ों जैन लोग उसके दर्शनोंके लिए आते हैं और उस व्रतस्थको वह शांति बिलकुल नहीं मिलती जो ऐसे अवसरोंपर मिलनी चाहिए। अतः इस व्रतको इतना महत्त्व देकर उसका ढिंढोरा पीटना उचित नहीं है। जहाँ तक हो सके; ऐसे व्रतस्थको शांति मिलने दी जाय। यदि उसके लिए भूखकी वेदनाएँ असह्य हो जायँ तो क्या किया जाय ? उसे दवा या इंजेक्शन देना जैन लोग अनुचित समझते हैं । पर मेरे मनमें उसे शांत रखनेके लिए ज़रूरी औषध-उपचार किये जाने चाहिए। अब हम इसका विचार करें कि इस व्रतसे समाजको क्या लाभ पहुँच सकता है। असाध्य रोग और जरासे मुक्त होनेके लिए इस व्रतका आचरण आम बात हो जाय तो उसके कारण समाजका काफ़ी खर्च बच जाएगा । आज ऐसे रोगग्रस्त अमीरों और गरीबोंपर समाजका बहुत-सा पैसा खर्च होता है। फिर भी ऐसे लोगोंको मार डालना समाजके लिए संभव नहीं हैं । अमीरोंको उनके घरमें और गरीबोंको अस्पतालमें तकलीफ भुगतनेके लिए रहने देना पड़ता है। कुष्ठ रोगियोंको तो जबर्दस्ती समाजसे दूर रखकर उनके पालन-पोषणका
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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