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________________ पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म स्थायी नहीं है—या तो असाध्य रोग उसे निगल जायगा या बुढ़ापेसे वह नष्ट होगा। ऐसे अवसर पर मुझे खुशीसे यह शरीर मृत्युके हवाले कर देना चाहिए। इससे मेरा और मेरे आप्तमित्रोंका दुःख बहुत कम हो जायगा। इस संशयको मनमें बनाये रखनेसे मनुष्यके हाथों बुरे काम भी नहीं होंगे। पार्श्वनाथसे पहले आर उनके समयमें गृहस्थ लोग वृद्ध होनेपर गृहत्याग करके अरण्यमें जाते और वहाँ अनशन करके प्राण त्याग देते थे। इसका एक उदाहरण महाजनक जातकमें मिलता है। जब जनक राजा वृद्ध हुआ तो उसने गृहत्याग किया। उसे वापस लौटानेके अनेक प्रयत्न उसकी सीवली रानीने किये। परंतु पीछे न मुड़कर जनकने हिमालयका मार्ग पकड़ा। सीवली उसके साथ चली । अन्तमें वे दोनों एक छोटे से शहरके बाहर आये । वहाँसे दो रास्ते थे । वहाँपर जनकने सीवलीसे कहा, अयं द्वेधापथो भद्दे अनुचिण्णो पथाविहि । तेसं त्वं एकं गण्हाहि अहमेकं पुनाषरं ॥ [ अर्थात् हे भद्रे, ये दो मार्ग हैं, जिनका अनुसरण पथिक करते हैं। इनमें से एक तुम ले लो और दूसरा मैं लेता हूँ।] यह सुनकर सीवली बेहोश होकर वहीं गिर पड़ी और जनक हिमालयके जंगलमें चल दिये। उनके पीछे पीछे उनके अमात्य आ रहे थे। उन्होंने सीवलीको होशमें लाकर उसकी रक्षाके लिए कुछ लोग नियुक्त कर दिये और जनकको खोजना शुरू किया। परंतु उसका कुछ भी पता न चला। तब उस द्वेधापथपर जनकके स्मारकके लिए स्तूप बनाकर सीवली देवीके साथ वे मिथिला लौट आये।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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