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________________ इतिहासकी शिक्षा १०५ परदुक्खूपदानेन अत्तनो सुखमिच्छति । वेरसंसग्गसंसट्ठो वेरा सो न पमुञ्चति ॥ (अर्थात् दूसरोंको दुःख देकर जो अपने सुखकी इच्छा करता है, वह वैरमें फँस जाता है, वेरसे मुक्त नहीं होता।)यह उपदेश यूरोपीय राष्ट्रोंको कभी नहीं ऊँचा; और उसका फल आज उन्हींको नहीं बल्कि सारी दुनियाको भुगतना पड़ रहा है। सारांश, हिंसा, असत्य, स्तेय एवं परिग्रहसे किसी भी राष्ट्रका हित हुआ हो, ऐसा प्रमाण इतिहासमें नहीं मिलता। वर्तमान उलझनों और अत्यन्त जटिल परिस्थितियोंमेंसे बाहर निकलनेके लिए सब राष्ट्रोंके सामने यही एकमात्र उपाय है कि वे अपनी नीतिको इस चातुर्यामकी कसौटीपर कसकर देखें । हम शस्त्रास्त्रोंके द्वारा हिंसाकी तैयारी कर रहे हैं या नहीं ? अन्य राष्ट्रोंको ठगनेके लिए हम असत्यके प्रयोग करते हैं या नहीं ? दूसरे राष्ट्रोंको लूटकर यानी स्तेय द्वारा हम सम्पत्ति जमा करते हैं या नहीं ? और हमारे परिग्रहके कारण हमें इस पापका और अन्य पापोंका अंगीकार करना पड़ता है या नहीं ? इसका विचार सभी राष्ट्रोंके नेताओंको अवश्य करना चाहिए । इस चातुर्यामकी कलौटीपर यदि उनके कार्य खरे उतरें तो संसारके बहुत-से दुःख दूर होंगे और सब राष्ट्रोंमें सुख एवं शांतिका निवास होगा। मज्झिम निकायके सल्लेख सुत्तमें भगवान् बुद्धने कहा है कि, " हे चुन्द, विषम मार्गमेंसे मुक्त होनेके लिए जैसे कोई सरल मार्ग हो, वैसे ही विहिंसक मनुष्यकी मुक्तिके लिए अविहिंसा है....अदत्तादान (चोरी या लूट) करनेवालेके लिए दत्तादान मुक्तिमार्ग है....असत्यवादी मनुष्यके लिए सत्य मुक्तिमार्ग है....लोभी मनुष्यके लिए निर्लोभ मुक्तिमार्ग है।"
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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