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________________ पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म बम्बईकी गंदी इमारतोंमें भीड़ करके और दिनभर या कभी कभी रातभर मिलोंकी दम घोंटनेवाली हवामें काम करके किसी तरह दिन बिता रहे हैं। 'सारांश यह कि, शस्त्रबलसे औरोंको जीतकर जो अपनी आजीविका चलाना और मौज उड़ाना चाहते हैं, उनकी करतूतोंके ज़हरीले फल खानेकी नौबत उनके वंशजोंपर आये बिना नहीं रहती। जैसा कि धम्मपदमें कहा गया है, ___ मधुवा पञ्जती बालो याव पापं न पञ्चति । यदा च पच्चती पापं (अथ ) बालो दुक्खं निगच्छति ॥ [अर्थात् जब तक पाप पक नहीं जाता तबतक वह मूर्खको मधुके समान मीठा लगता है; पर जब वह पक्व होता है, तब मूर्ख दुःख भोगता है।] प्रारंभमें हिंसात्मक पराक्रम मीठे लगते हैं तो भी परिणामतः वे अत्यंत दुःखद हो जाते हैं। किसी भी लाभकी आशा रखे बिना दूसरे देशोंमें जाकर धमापदेश करनेका एक मात्र उदाहरण हमारे इतिहासमें प्राचीन भिक्षुओंका है। ये उपदेशक पूर्वके सभी देशोंमें गये। यहाँ हमें इसकी चर्चा नहीं करनी है कि उनके उपदेशका परिणाम क्या हुआ. पर उनके उद्योगसे एक महान् लाभ यह हुआ कि चीन, तिब्बत आदि देशोंमें हमारे सम्बन्धमें आदर बढ़ गया। कोई भी कार्य निरपेक्षतासे परोपकारकी दृष्टि से किया जाय तो उसका परिणाम मीठा होना ही चाहिए। जर्मन वैज्ञानिकोंने इसी निरपेक्ष बुद्धिसे रूसियोंकी मदद की होती, तो आज इन दो जमातोंमें जो बैर दिखाई देता है वह न रहता आर जर्मनोंको अपना गुरु मानकर रूसियोंने उनका बहुत आदर किया होता। इससे दोनों महासमर टल जाते; इतना ही नहीं बल्कि, संसारके सुखमें काफी वृद्धि होती । परन्तु,
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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