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________________ अहिंसा ९३ चाहिए, आदि बातों के साथ इन प्रयोगोंको मिला दिया जाय, तो ये सत्य और अहिंसा के प्रयोग न रहकर एक संप्रदाय बन जाएँगे और उससे लाभकी अपेक्षा हानि ही अधिक होगी । " दूसरी बात यह है कि इन प्रयोगोंको परमेश्वर और आत्मासे दूर रखना चाहिए। वैज्ञानिक इसकी खोज अवश्य करें कि परमेश्वर अथवा आत्मा है या नहीं । ईश्वरके विषय में वैज्ञानिक कुछ भी नहीं बता सकते । अर्थात् वे इस सम्बन्ध में अज्ञेयवादी या प्रत्यक्षवादी हैं । आत्माके विषयमें जो अनुसन्धान चल रहा है उसमें बौद्धोंका यह सिद्धान्त ही सही माना जाता है कि, आत्मा अत्यंत अस्थिर अथवा अनित्य है । ' जैसी विद्युत् शक्ति होती है, वैसी ही आत्मशक्ति है । उसका उपयोग अच्छे और बुरे दोनों कामोंमें किया जा सकता है । यह आत्मशक्ति जैसे चंगेज़ख़ान, तैमूरलंग, महमूद गज़नवी आदिमें थी वैसे ही पार्श्वनाथ, महावीर, बुद्ध, ईसा आदिमें भी थी। अंतर केवल इतना ही है कि पहले लोगोंने उस शक्तिका उपयोग मानवोंके संहारके लिए किया और दूसरे लोगोंने मनुष्यके विकास के लिए । आजकल विज्ञानका जो विकास हुआ है वह परमेश्वरपर भरोसा रखनेसे नहीं हुआ है, बल्कि वैज्ञानिकोंको कई बार ईश्वरभक्तोंसे लड़कर ही अपने आविष्कारोंपर अमल करना पड़ा है । अतः चातुर्यामोंके प्रयोगमें परमेश्वरकी कल्पनाको जोड़ देनेसे संप्रदाय के सिवाय और कुछ नहीं निकलेगा । अहिंसा इधर अहिंसाका यह अर्थ हो गया है कि एक तरफ लोगोंको बुरी तरह चूसकर पैसा कमाया जाय और दूसरी तरफ एक पिंजरापोल खोला जाय; अथवा वह संभव न हो तो कुत्तों और बन्दरोंको घी- रोटी
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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