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मेरे कथागुरुका कहना है
सुदूर सामनेको जल-राशिमें बहुतेरे मानवोंको देवताओके शरीरोंसे गिरकर जलमग्न होते देखा । किन्तु जब तक इन पदचारियोंकी गरदने पानीके ऊपर थीं तब तक इन्हें अपनी कोई चिन्ता नहीं करनी थी। ये बढ़ते गये। आगे बढ़े हुए अनेक देवताओंको भी इन्होंने पीछे छोड़ दिया-उनकी गति अपने भार और वाहितोंकी सम्हालमे धीमी पड़ गयी थी। सूर्यास्तके पूर्व ही ये स्वयचारी उस झीलके पार रुपहले पर्वतकी तलहटीपर पहुंच गये। उनके उल्लास और आश्चर्यकी कोई सीमा न थी-विशेष कर यह देखकर कि वह विस्तृत झील तटवर्ती कुछ और भी उथली दूरियोंको छोड़कर कही भी डेढ़ गज़से अधिक गहरी नहीं थी।
अब यह रहस्य खुला है कि अति प्राचीन युगमे वह उथली, समतला, केवल साढ़ेचार फ़ीट गहरी और नौ मील चौड़ी झील देवताओंने अपनी और मानवोंकी उस बस्तीके बीच कुछ विशेष अभिप्रायोंसे खोदी थी। अज्ञातके प्रति मनुष्योंकी भयकी प्रवृत्तिके कारण ही उन्हें इतने युगों तक स्वयम् भारवाहक बनकर उनके उत्तरणको व्यवस्था करनी पड़ी थी और उसकी असंख्य विफलताओंका भी सामना करना पड़ा था। कहते हैं कि ग्रामवासियोंकी नयी पीढ़ीके उस नये मानवके स्वपद-अभियान और उससे प्राप्त प्रेरणासे ही इस रहस्यका उद्घाटन हुआ है और आगेके लिए देवता जन उस अप्रिय भारवाहनके कार्यसे बहुत कुछ मुक्त हो गये हैं। कुछ लोगोंका अनुमान है कि वह ग्राम्य मानव और कोई नहीं स्वयं उस स्वर्ण मन्दिरके निवासी भगवान् ही थे, जो कभी भी ग्रामवासी मानवोंसे बाहर नहीं थे और देवताओंकी विफलतासे द्रवित होकर उस उथली झीलसे पार आनेका सहज मार्ग दिखाने के लिए उनके बीच आ बसे थे । मेरे कथागुरुका कहना है कि किसी रहस्य-रोतिसे प्रत्येक मनुष्यकी वर्तमान स्थिति और उसके चरम अभीष्ट के बीच वह झील आज भी अज्ञात-तला बनी