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________________ ७० ] संशय यद्यपि मर गया तो भी हो पाया नहीं नमझी है सापेक्षता सत्य अहिंसा ब्रह्म कृष्ण- गीता दोहा श्रीकृष्ण - श्रद्धा हुई जिज्ञासा समझा है समझा है हैं हैं ये का अनन्त | अन्त ॥४॥ एक दूसरे में जहां हो कंस निर्णय वहां परम उनके निर्णय के लिये तुमने कहा विवेक । पर विवेक कैसे करूं हो न कहीं अतिरेक || ६ || दीखे मुझे विरोध । सत्य की शोध ॥७॥ बने विवेकाधार । कहो निकप वह कौन है जिसको पाकर मैं करूं संशय- सागर - पार ||८|| आचार | जगदाधार ||५|| होते जितने कार्य है वे सब सुख के अर्थ | जिसमे मिल सकता न मुख, कहलाता वह व्यर्थ ||१९|| करता है संसार यह निशिदिन सुख की खोज । होता है सुखके मिले विकसित बदन सरोज ॥ १०॥ धन विद्या सौन्दर्य बल नाम और अधिकार | कुल कुटुम्ब सुख के लिये ढूंढ़ रहा संसार ॥ ११ ॥ चन नहीं है चैन बिन ज्यों ही हुआ प्रभात । त्यों ही भौंरा सा भ्रमें जब तक हुई न रात ॥ १२ ॥ जग चाहे सुखके लिये मज़ा और उसी आराम को जग का बने मौज़ आराम | गुलाम ॥१३॥
SR No.010814
Book TitleKrushna Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1995
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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