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________________ देशविरतिचारित्र और उसके योग्य मार्गानुसारी गृहस्थ के ३५ गुण मल-मूत्र साफ करके बालकों को स्वच्छ रखती है ; वैसे ही साधुओं के चारित्ररूपी शरीर को जन्म देने वाली, उपद्रव का निवारण करके पालन करने वाली, पोषण करके बढ़ाने वाली अतिचार से मलिन हो तो उसे साफ करके निर्मल करने वाली ये अष्टप्रवचनमाताएं हैं। अब चारित्र का वर्णन करके उपसंहार करते हैं सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमीरितम् । यति-धर्मानुरक्तानां देशतः स्यादगारिणाम् ॥४६॥ अर्थ उपरिवणित महावत और अष्ट प्रवचन माताएं सर्वविरतिचरित्र धारण करने वाले मुनीन्द्रों के लिए हैं और यति (साधु धर्म पर अति-अनुराग रखने वाले श्रमणोपासकों गृहस्थों के लिए तो देश से (आंशिक) चरित्र होता है। व्याख्या सर्वविरति और देशविरति ये चारित्र के दो प्रकार कहे हैं । समस्त सावद्य (पापकारी) व्यापारों का सर्वथा त्याग करना सर्वविरतिचारित्र है। वह सर्वविरतिचारित्र (श्रेष्ठ साधुधर्म) मूलगुण होर उत्तरगुण-स्वरूप होता है । देश-चारित्र के अधिकारी कौन है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि-धातुओं के अनेक अर्थ होने से यहां यह अर्थ भी गृहीत है कि देशविरति-गृहस्थ, देशविरतिचारित्रधारक होते हुए भी सर्वविरतिचारित्र में अत्यन्त अनुरागी होना चाहिए । गृहस्थों का एक देश से (आंशिक) चारित्र होता है। गृहस्थ कैसा होता है ? गृहस्थाश्रम में रहने से परिवार के पालन-पोषण, आजीविका, आदि प्रपंचों में ग्रस्त होने के कारण व संघयण आदि दोष के कारण वह सर्वविरति की बाराधना नहीं कर सकता। कहा भी है-"देशविरति-परिणाम वाला श्रावक सर्व-विरति का अभिलाषी होता है । यतिधर्म के प्रति अनुराग के बिना गृहस्थ-श्रावकों का श्रावकव्रत तो सम्भव है, लेकिन समय-समय पर उनके व्रतों में अतिचार (दोष) लगने पर उसकी शुद्धि के लिए आलोचना, प्रायश्चित्त आदि तथा चेतावनी एवं अतिथिसंविभागवत का पालन भी सर्वविरति श्रमण के होने पर ही संभव है। इसलिए श्रमणोपासकों का श्रमणों से अनुबद्ध होना अनिवार्य है। देशविरति चारित्र वाला गृहस्थ धर्माधिकारी कैसे बन सकता है ? इसे बताने के लिए 'तपाहि' कह कर उसकी प्रस्तावना करते हैंधर्माधिकारी-मार्गानुसारी को योग्यता न्या सम्पन्नावभवः शिष्टाचा-प्रशंसकः । कुलशीलसमः साद्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजः ॥४७॥ अवर्णवादी न क्वाऽपि राजादिषु विशेषतः।। अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने प्रतिवेश्मिके ॥४॥ अनेकनिर्गमारविवाजतनिकेतनः ॥४९॥ कृतसंगः स चारर्माता-पिनोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तर गहिते ॥५०॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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