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________________ re योगशास्त्र । प्रथम प्रकाश अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, बहु, बहुविध आदि भेदयुक्त, इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं । भुतज्ञान- अंग, उपांग, प्रकीर्ण, आदि को विस्तारयुक्त स्याद्वाद से युक्त ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । श्रुतज्ञान के अनेक भेद हैं । इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा से अमुक अवधि तक रूपी द्रव्यों का ज्ञान होता रहे अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं- भवप्रत्ययिक और (२) गुण- प्रत्ययिक ( क्षयोपशमजन्य ) । देवता और नारकों को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है; किन्तु मनुष्यों और तियंचों को यह ज्ञान क्षयोपशम से होता है । वह छह प्रकार का होता है - अनुगामि, अननुगामि वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति । मनः पर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद हैं । ऋजुमति साधारणतः प्रतिपाति होता है; परन्तु विपुलमति मनापर्यंवज्ञान एक बार प्राप्त होने पर कदापि नहीं जाता । जगत् के सर्वकालों, सर्वद्रव्यों, सर्वपर्यायों का आत्मा से सीधा होने वाला विश्वलोचन के समान अनन्त, अतीन्द्रिय अपूर्वज्ञान केवलज्ञान कहलाता है । इस तरह पांच ज्ञान से सभी तत्व जाने जा सकते हैं । ज्ञान से साधक, मोक्ष के कारणरूप रत्नत्रय के प्रथम भेद का ज्ञाता बन सकता है । संसार रूपी वृक्ष के समूल उन्मूलन के लिए मदोन्मत्त हाथी के समान, अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान, जगत् के तत्वों को प्रकाशित करने के लिये अपूर्व नेत्रसमान तथा इन्द्रियों रूपी हिरनियों को वश करने हेतु जाल के समान यह सम्यग्ज्ञान ही है । अब दूसरे दर्शन रत्न के सम्बन्ध में कहते हैं रुचिजिनोक्ततत्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ॥ १९ ॥ अर्थ श्री जिनेश्वर भगवान् के द्वारा कथित तत्वों में रुचि होना सम्यक् श्रद्धा कहलाती है। वह सम्यक्चद्धा निसर्ग से ( स्वभावतः ) तथा गुरु महाराज के उपदेश से होती है। व्याख्या श्री जिनेश्वर कथित जीवादि तत्वों में रुचि होना सम्यक् श्रद्धा (दर्शन) है । सम्यक् श्रद्धा के बिना फलसिद्धि नहीं होती । साग, अनाज आदि के स्वरूप के ज्ञात होने पर भी रुचि के बिना मनुष्य उसकी तृप्ति अथवा स्वाद का फल प्राप्त नहीं कर सकता । श्रुतज्ञान वाले अंगारमदंक आदि, अभव्य जीव अथवा दुर्भव्य जीव को जिनोक्त तत्व पर रुचि नहीं होने से वे तप-अनुष्ठानादि का फल प्राप्त नहीं कर सके । वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है। गुरु महाराज के उपदेश के बिना जो स्वाभाविक, होता है ; उसे प्रथम निसर्ग-सम्यक्त्व कहते है; और जो गुरु महाराज के उपदेश से अथवा प्रतिमा, स्तम्भ, स्त्री आदि किसी भी वस्तु को देख कर होता है, उसे अधिगम सम्यक्त्व कहते हैं । अनादि अनंत संसार के भंवरजाल में परिभ्रमण करते हुए जीवों के साथ लगे हुए ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय और अन्तरायकमों की उत्कृष्ट स्थिति तीन कोटाकोटि सागरोपम की है, गोत्र और नामकर्म की बीस कोटाकोटि तथा मोहनीयकर्म की सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। इस स्थिति में जिस प्रकार पर्वत पर से बहती नदी में लुढ़कते टकराते हुए कितने ही बेडौल पत्थर अपने आप गोलाकार बन जाते हैं; उसी प्रकार अनायास ही स्वयमेव प्रत्येक कर्म की स्थिति उसी प्रकार के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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