SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सात तत्त्वों पर संक्षिप्त विवेचन परिवर्तन होते रहते हैं; यह सब काल का ही सामध्यं है । काल के ही कारण वर्तमान पदार्थ भूतकाल की संज्ञा को और भावी पदार्थ वर्तमानभाव को प्राप्त करता है। इस तरह अजीवतत्व पूर्ण हुआ । आश्रवतत्व मन, वचन और काया के योग से जीवरूपी जलाशय में कर्मरूपी जल का आना आश्रव कहलाता है। शुभकर्म के कारण शुभ आश्रव अथवा पुण्य और अशुभकर्म के कारण अशुभ आश्रव अर्थात् पाप कहलाता है । इस प्रकार जीवरूपी तालाब में कर्मरूपी पानी का आना आश्रव है। संवरतत्व और निर्भरातत्व आश्रवों को रोकना संवर कहलाता है । संसार के जन्ममरण के हेतुभूत कर्मों को आत्मा से अंशत: अलग करना निर्जरा है। इस तरह दोनों तत्वों का स्वरूप एक साथ बतला दिया है। आश्रव, संबर और निर्जरा तत्व का स्वरूप यहां विस्तृतरूप से नहीं बता रहे हैं; क्योंकि आगे चल कर भावना के प्रकरण में इन्हें विस्तार से बताया जाएगा। पाठक वहीं पर विस्तृत रूप से जान लें। यहां पर पुनरुक्ति होने के भय से तीन तत्वों को संक्षेप में ही बता दिया है । ५७ बन्धतत्व कषायों के कारण जीव, कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है; जीव को इस प्रकार परतंत्रता से डालने का कारणभूत तत्व बन्ध कहलाता है। जैसे बेड़ी से जकड़ा हुआ कैदी पराधीन हो जाता है, वैसे ही कर्मरूपी बेड़ी में जकड़ा हुआ स्वतंत्र आत्मा भी पराधीन हो जाता है । बन्ध के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । ये चार भेद हैं ; प्रकृति का अर्थ है - कर्म का स्वभाव | इसके ( प्रकृतिबंध के ) ज्ञानावरणीय आदि निम्नोक्त आठ भेद होते हैं - ( १ ) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र और ( ८ ) अन्तराय । कर्म की ये मूल आठ प्रकृतियां कहलाती हैं। अधिक या कम कर्मों की स्थिति अर्थात कर्म भोगने की अवधि या काल-नियम को कर्मस्थिति ( स्थितिबन्ध ) कहते हैं । अनुभाग विपाकरस को और प्रदेश कर्मों के दलों को कहते हैं। मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच कारणों से जीव कर्म-बन्धन करता है । इस तरह बन्धतत्व का स्वरूप बताया गया है । मोक्ष कहलाता है । मोक्ष से पहले चार घातीकर्मों के रहे कारणों का क्षय होने से जीव को मोक्ष होता है। जो सुख है, वह मोक्षसुखसम्पत्ति के अनंतवें भाग में आत्म-स्वरूप में रमणतारूप जो सुख है, वही अतीन्द्रिय है, नित्य है और उसका कभी अन्त नहीं होता । इस प्रकार का असीम सुख होने से मोक्ष को चारों वर्गों में अग्रसर कहा है । इस तरह मोक्षतस्व का कथन मोक्षतत्व सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना या कर्मबन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाना क्षय होने से केवलज्ञान होता है। उसके बाद शेष तीनों लोकों में देवों, असुरों और चक्रवर्तियों को भी नहीं है । अपनी आत्मा में स्थिरतारूप या किया गया । पांच शानों का स्वरूप सम्यग्ज्ञान के मुख्य पांच प्रकार हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान | ये पांचों ज्ञान उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । इनके पांच भेदों के प्रत्येक के उत्तर भेद भी हैं। 5
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy