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________________ ५२ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश देख कर वह बहुत ही प्रभावित हुआ। ध्यान खोलते ही उसने मुनि से कहा- 'मुझे झटपट संक्षेप में धर्म कहो ; नहीं तो इसी तलवार से इस सुषमा की तरह केले के पेड़ के समान तुम्हारा भी सिर उडा दूंगा। मुनि ने जानबल से जाना कि- 'इस आत्मा में बोधि-बीज बोने से धर्मरूपी अंकुर फूटने की अवश्य संभावना है। अतः उन्होंने कहा-'उपशम, विवेक और संवर की अच्छी तरह आराधना करनी चाहिए।' यों कह कर वे पक्षी के समान आकाश में उड़ गए। चिलातीपुत्र उन तीनों पदों को सुनते ही भली भांति ग्रहण करके बार-बार उनको स्मरण करने लगा। धीरे-धीरे उन तीनों पदों का भावार्थ उसे इस प्रकार समझ में आया- 'समझदार पुरुषों को क्रोधादि कषायों का उपशम करना चाहिए । परन्तु अफसोस है, सो से जैसे चन्दनवृक्ष घिरा रहता है, वैसे मैं भी कपायरूपी सपों से घिरा हुआ हूँ। अतः इस कषायरूपी महारोग की यथार्थ चिकित्सा के लिए मुझे इन कषायों से दूर ही रहना है । कषायों के उपशम के लिए मेरा पहला संकल्प है कि आज से मैं क्षमा, नम्रता, सरलता और सन्तोषरूपी महौषधियों का सेवन करूंगा। मेरा दूसग संकल्प यह होगा कि मैं आज से धन, सोना आदि पदार्थों के त्यागरूपी विवेक का ; जो ज्ञानरूपी महावृक्ष का बेजोड़ बीज है, स्वीकार करूगा तथा पापमय सम्पत्ति की ध्वजा के समान इस सुषमा का मस्तक और हाथ में पकड़ी हुई तलवार एवं अनर्थरूप समस्त अर्थ का भी त्याग करता हूँ। मेरा तीसरा सकल्प यह है कि आज से मैं इन्द्रियों और मन के विषयों से निवृत्तिरूपी त्याग तथा संयम-लक्ष्मी के मुकुट-समान संवर अंगीकार करता है। इस प्रकार समस्त इन्द्रियों को वश करके वस्तुतत्त्व का चिन्तन-मनन करते-करते वह इतती गहराई में डूब गया कि उसका मन एकाग्र हो गया ; वह समाधिस्थ और निश्चेष्ट हो गया। इधर चिलातीपुत्र के शरीर पर लिपटे हुए खून की दुर्गन्ध से वहां हजारों चीटियां आ गई और वे कवच के समान शरीर के चारों ओर लिपट गई। उन चींटियों ने मिल कर चिलातीपुत्र के शरीर में सैकड़ों छेद कर डाले। चींटियों का इतना असह्य उपसर्ग (कष्ट) शरीर पर आ पड़ने पर भी चिलातीपुत्र स्तम्भ के समान निश्चल रहा । ढाई दिनों तक इस घोर कष्ट को समभावपूर्वक सहन करते हुए उसने शरीर छोड़ा । वहां से मर कर वह देवलोक में गया । दूसरे सूत्रों में भी चिलातीपुत्र का आख्यान है। वहां बताया गया है कि तीन पदों का श्रवण करके धर्म को भलीभांति समझ कर संयम को स्वीकार करने वाले, उपशम, विवेक और संवर पद के आराधक चिलातीपुत्र को मैं नमस्कार करता हूं। खून की गन्ध से चीटियों ने जिनके पैरों से चढ़ कर मस्तक तक पहुंच कर सारे शरीर को कुरेद-कुरेद कर नोच खाया, फिर भी जो समाधिस्थ रहे, ऐसे दुष्कर तपस्वी को वंदन करता हूं। चोटियों ने जिसके शरीर को चलनी-सा छिद्रयुक्त बना दिया और जगह-जगह से काटा; फिर भी जो समभाव की साधना के पथ पर स्थिर रहे ऐसे धीर चिलातीपुत्र ने तो सिर्फ ढाई दिन में ही योग के प्रभाव से अप्सराओं से रमणीय बने हुए देवभव को प्राप्त किया । वास्तव में देखा जाय तो चिलातीपुत्र अपने चांडाल-सम व्यवहार से धिक्कार का भागी और नरक का अधिकारी पा, लेकिन योग का आलम्बन लेने से ही वह देवलोक के सुख का अधिकारी बन गया। इसी तरह समग्र-मुख का मूल कारण योग ही है, जिसके प्रभाव से मनुष्य सर्वत्र विजय प्राप्त करता है । पुनः योग की ही प्रशंसा में कहते हैं तस्याजननिरेवान्त, नृपशोर्मोघजन्मनः । अविद्धकर्णो यो 'योग' इत्यक्षर-शलाकया ॥१४॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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