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________________ 112. धन्य सार्थपति का देव पर चिन्तन और चिलातीपुत्र को मुनिदर्शन राहु के मुख से चन्द्रकला को छुड़ाना । फिर भी धन्यसार्थपति साहस करके अपने पांचो पुत्रों सहित सिंह की तरह उसका पीछा करता रहा। इधर चिलातीपुत्र ने भी इस बुद्धि से सुषमा का सिर काट डाला कि कहीं धन्यसार्थपति मेरे पास आ गया तो मेरी सुषमा को वह अपने कब्जे में कर लेगा । अब वह एक हाथ में नंगी तलवार और एक हाथ में सुषमा का कटा मस्तक लिए बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। उस समय वह ऐसा लग रहा था, मानो यमपुरी का क्षेत्रपाल हो। इधर धन्यसार्थपति सुषमा के अलग पड़े हुए धड़ के पास आ कर रुदन करने लगा। मानो वह सुषमा को आंसुओं की अंजलि अर्पण कर रहा हो। तत्पश्चात् उसने सोचा-'अब यहाँ रुकना व्यर्थ है। बेटी सुषमा गई। धन भी गया।' अतः वह सुषमा के कटे हुए धड़ को वहीं छोड़ कर अपने पुत्रों के साथ भारी कदमों से वापिस चल पड़ा। शोक के कांटों से बींधा हा धन्यसार्थपति भयंकर जंगल में भटक रहा था। ग्रीष्मऋत की दोपहरी का सूर्य तप रहा था। उसकी चिलचिलाती सख्त धूप उनके ललाट को तपा रही थी। कहीं छाया का नामोनिशान भी नहीं था । शोक, थकान, भख, प्यास और मध्याह्न के ताप से पीड़ित धन्यसार्थपति और उसके पांचों पुत्र ऐसे लगते थे मानो वे पंचाग्नि तप कर रहे हों। उस बीहड़ में उन्हें रास्ते में कहीं पानी, खाने लायक फल या जीवन को देने वाली कोई भी औषधि नजर नहीं आई। प्रत्यूत फाड़ खाने वाले हिंसक जंगली जानवर जरूर दिखाई दिए; मानो वे मौत का न्यौता ले कर आए हों। अपनी और पुत्रों की ऐसी विषम-अवस्था देख कर धन्यसार्थपति ने लम्बे मार्ग में चलते-चलते विचार किया कि 'हाय मेरी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई ; प्राणाधिका पुत्री भी मर गई और अब हम भी मृत्यु के किनारे पहुंचे हुए हैं । अहो ! धिक्कार है देव के इस क्रूर विलास को ! पुरुषार्थ करने से या बौद्धिक वैभव से जहां मनुष्य अपने ईष्ट पदार्थ को नहीं साध सकता; वहाँ अटवी में देव (भाग्य) ही एकमात्र सहारा है । वह बड़ा बलवान् है । मगर यह देव दान से प्रसन्न नहीं होता, विनय से इसे वश में नहीं किया जा सकता, सेवा से इसे काबू में नहीं किया जा सकता । यह देव-वशीकरण-साधना कितनी मुश्किल है ? पण्डित भी इसका मर्म नहीं समझ सकते । पराक्रमी भी इसकी विषम प्रक्रियाओं को रोक नहीं सकते। ऐसे देव को जीतने वाला इसके जोड़ का और कौन होगा ? और यह भी है कि यह देव किसी समय मित्र के समान कृपा करता है, तो कभी शत्र के समान वेषड़क नाश भी कर देता है। कभी पिता के समान सर्वथा रक्षा करता है. तो किसी समय दुष्टों के समान पीड़ा देता है। कभी देव उन्मार्ग पर चढ़े हुए को सन्मार्ग पर ले आना है, तो कभी अच्छे मार्ग से गलत मार्ग में जाने की प्रेरणा देता है। किसी समय दूरस्थ वस्तु को निकट ले आता है, तो कभी हाथ आई हुई वस्तु भी छीन लेता है। माया और इन्द्रजाल के समान देव की गति अतीव गहन और विचित्र होती है। देव की अनुकूलता से विष अमृत बन जाता है और प्रतिकूलता से अमृत भी विष बन जाता है।' यों चिन्ताचक्र पर चढ़ा हुमा शोकमग्न धन्यसार्थपति जैसे-तैसे अपने पुत्रों के साथ राजगृह पहुंचा। अपनी पुत्री सुषमा के शरीर की उत्तरक्रिया की । बाद में संसार से विरक्ति हो जाने से उसने श्री महावीर प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की और दुष्कर तप करके आयु पूर्ण कर स्वर्ग में गया । इधर चिलातीपुत्र भी सुषमा पर गाढ़ अनुराग के कारण बार-बार उसका मुख देखता हुमा मार्ग की थकान की परवाह न करके दक्षिणदिशा की ओर चला जा रहा था। मार्ग में उसे सब प्रकार के संताप को दूर करने वाले छायादार वृक्ष के समान कायोत्सर्ग (ध्यान) में स्थिर एक साधु के दर्शन हुए । चिलातीपुत्र के मन को अपना अकार्य बार-बार कचोट रहा था। अतः मुनि की शान्त मुखमुद्रा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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