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________________ योगशास्त्र:द्वादशम प्रकाश सांसारिक सुखामिलापा दूर करके शाश्वत सुख के स्वामी आन्मन् ! तू अपने मात्मदेव को ही जरा प्रसन्न कर ; इससे दूसरी लौकिक संपत्ति अथवा अनर्थ-परिहार रूप ममृद्धि तो मिलने वाली ही है; परन्तु परम-ज्योति (मान) स्वरूप केवलज्ञान के विशाल साम्राज्य का स्वामित्व तुझमें प्रकट होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि 'सारे जगत् को प्रसन्न करने का प्रयास छोड़ कर केवल एक अपनी आत्मा को प्रसन्न कर, जिससे परमेश्वरत्व की सम्पदाएं और ऐश्वर्य आसानी से प्राप्त होता है। उसके बिना सब प्रयत्न व्यर्थ समझना । इस प्रकार के साम्राज्य में उन्मनीमाव सुलभ बनता है। हमने पहले 'सिद्धान्तरूप समुद्र से सद्गुरु-परम्परा से और स्वानुभव में जान कर, इत्यादि कथन किया था, उसे निभा कर यानी योगशास्त्र ग्रन्थ की रचना पूर्ण कर दी । अब उसका उपसंहार करते है या शास्त्रात् सुगुरोमुखादनुभवाच्चानायि किंचित् क्वचित् । योगस्योपनिषद-विवेकिपरिषच्चेतश्चमत्कारिणो । श्रीचौलुक्य-कुमारपाल-नृपतेरत्यर्थमभ्यर्थनाद् । आचार्येण निवेशिता पथि गिरा श्रीहेमचन्द्रण सा ॥५॥ अर्थ-आगमों और अन्य शास्त्रों से तथा इनको यथार्थ सुन्दर व्याख्या करने वाले गीतार्थ सुगुरु के मुखारविंद से तथा मेरे अपने अनुभव से योग का जो अल्प रहस्य जानने में आया, वह योगचि वाले पडितों को परिषद् (सभा) के चित्त को चमत्कृत करने वाला होने से श्री चौलुक्यवंशीय कुमारपाल राजा को अत्यन्त प्रार्थना से आचार्यश्री हमचन्द्र ने योगशास्त्र नामक ग्रन्थ वाणी के मार्ग से प्रस्तुत किया है। __ व्याख्या-श्रीकुमारपाल महाराजा को योग की उपासना अतिप्रिय थी। उन्होंने योगविषयक अन्य शास्त्र भी देखे थे, इसलिए पूर्वरचित योगशास्त्र से विलक्षण (अद्भुत) योगशास्त्र सुनन की उन्हें अभिलाषा थी और प्रार्थना करने पर वचन के अगोचर होने पर भी योग का सारभूत 'अध्यात्म-उपनिषद् नामक यह ग्रन्थ रच कर आचार्य श्रीमद्हेमचद्रसूरीश्वरजी ने वाणी के मार्ग से लिपिबद्ध करके इस योगशास्त्र को प्रस्तुत किया है । इति शुमम् । अब इस वृत्ति (व्याख्या) के अन्त मे प्रशस्तिरूप में दो श्लोक प्रस्तुत करते है श्री चौलुक्याक्षतिपतिकृत-प्रार्थनाप्रेरितोऽहं, तत्त्वज्ञानामृतजलनिर्योगशास्त्रस्य वृत्तिम् । स्वोपज्ञस्य व्यरचर्याममां तावदेषा च नन्द्याद्, यावज्जैनप्रवचनवती भूर्भुवःस्वस्त्रयोयम् ।।१।। अर्थ-स्वोपन व्याख्या का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि-चौलुक्य वश में जन्म लेने वाले कुमारपाल राजा की प्रार्थना से प्रेरित हो कर मैंने नत्वज्ञानामृत के समुद्रसमान स्वयंरचित बिवरणात योगशास्त्र को इस वृत्ति-(विवेचनयुक्त टोका) की रचना को है, जब तक स्वर्ग, मृत्यु और पातालरूप तीनों लोकों में जन-प्रवचनमय आगम रहें, तब तक इस पृत्तिसहित यह अन्य सदा समृड रहे।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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