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________________ उन्मनीमाव- अमनस्कता ही मनोजय का सर्वथंठ उपाय और उमकी विधि अर्थ---इस उन्मनोभाव के फल के सामने मधु मधुर नहीं लगता, चन्द्रमा की कान्ति भी शीतल नहीं प्रतात होती, अमृत के. ल नाममात्र का अमृत रह जाता है और सुधा का फल भी निष्फल ही हो जाता है । इसलिए ह गमित्र! तू परिणाम में दुःख देने वाले प्रयास को बस कर । अब तू मुझ पर प्रसन्न हो, क्याक अखण्ड परमानन्द-फल की प्राप्ति तेरे प्रसन्न होने पर ही निर्भर है। स्वानुभव स उन्मनीभाव-सम्बन्धी उपदश ने बाल गुरु की स्तुति व्यतिरकभाव से बताते है-- सत्येतस्मिन्नरति-रतिद गृह्यत वस्तु दूरादप्यासन्न ऽप्यसात तु मनस्याप्यत नव किचित् । पुसामित्यप्यवगतवतानन्मनोभावहता विच्छा बाढं न भवति कथ सद्गुरुपासनायाम् ॥५३॥ अथ - जब तक मन की स्थिति विद्यमान है, तब तक अरात के कारणरूप व्याघ्र आदि और रति के कारणरूप स्त्री आदि वस्तुए दूर हान पर मन के द्वारा दुःख-सुख ग्रहण किये जाते हैं और मन विद्यमान न हो, अर्थात् उन्मनाभाव हो जाने पर अरांत या रात देने वाली वस्तु पास में हो, तो भी यह दुःख-सुख ग्रहण नहीं परता। सुख-दुःख ता मनसम्बन्धी वृत्तियों पर आधारित है; विषयी का प्ति स या विषय भाग से उत्पन्न होने वाले नहीं । अतः इस तत्व के ज्ञाता पुरुषा का उन्मनाभाव के कारणभूत सद्गुरु को उपासना करने की प्रबल अभिलाषा क्यो नहा होगा ! अवश्यमेव होगा। अब मनस्कता की उपायभूत आत्म-प्रमन्नता - try बताते है तांस्तान्नपरमेश्वराप परान भाव. प्रसाद नयन, स्तैस्तैस्ततदुपायमूढ़ ! भगवन्नात्मन् ! किमायास्यसि । हन्तात्मनमपि प्रसादय मनाग येनासतां सम्पदः, साम्राज्यं परमेऽपि जांस तव प्राज्यं सनुज्जम्भते ।।५४॥ अर्थ---परमानन्द प्राप्त करने के यथाथ उपाय स नाम मूढ़ ! भगवन् आत्मन् ! तू इस परमात्मा को प्राप्त कर । अपरमेश्वर-१५ दूसर कसा मा देवक प.स जा कर इष्ट पदाथ भेंट दे कर, मनौती करके उनकी संवा-पूजा-भात. i उपायों से धन, यश, विधा, राज्य, स्वर्ग आदि इष्ट पदार्थों को प्रार्थना करके राग, ता, तुच्छ उपद्रव आदि अनयों से छुटकारा पाने की चाह से प्रेरित हो कर रे आत्म रगवन ! अपने आपको क्यों परेशान करते हो? अफसोस है, अपने आत्मदेव को भी तो जरा प्रसन्न कर, जिससे असत् पदार्थों को सम्पदाएं छूट कर केवलज्ञानरूप परमतेज के प्रकाश में तेरा विशाल साम्राज्य प्रगट हो। व्याख्या- यहाँ 'आत्मभगवन् ! भविष्य प पूज्य होने के कारण से कहा गया है। अभी तक तो दूसरे उगायो से अथवा दूसरे तथाकथित देवों का परमेश्वर मान कर उन्हें खुश करता रहा । इसमें तू भूढ़ बन कर ठगा गया है । इसलिए रजोगुण और तमागुण दूर कर, अर्थात् इस लोक या परलोक की
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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