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________________ ५९४ योगशास्त्र: एकादशम प्रकरण व्याख्या-यही शुक्लध्यान का प्रथम भेद है। जैसे कि-एक पदार्थ का चिन्तन करते हुए उसके शब्द का चिन्तन करना, शब्द-चिन्तन से द्रव्य पर आना, मनोयोग से कायायोग मे या बचनयोग में थाना, इसी तरह काया के योग से मनोयोग या वचनयोग मे सक्रमण करना, इस प्रकार का चिन्तन 'शुक्लध्यान के प्रथम भेद में होता है। कहा है-'पूर्वगत-श्रु तानुसार एक द्रव्य मे उत्पाद-स्थिति-विलय मादि पर्यायों का विविध नयानुसार चिन्तन करना वितकं है और विचार का अर्थ है-पदार्थ, शब्द या तीन योगों में से किसी एक योग से किसी दूसरे योग में प्रवेश करना और निकलना; इस तरीके से उसका विचार करना । इस प्रकार वीतराग मुनि को पृथक्त्व-वितक-सविचार शुक्लध्यान होता है । यही प्रश्न होता है कि पदार्य, शब्द या तीनों योगों में संक्रमण होने पर मन की स्थिरता कैसे रह सकती है? और मन की स्थिरता के बिना इसे ध्यान कैसे कह सकते है ? इसका उत्तर देते हैं कि 'एक बविषयक मन की स्थिरता होने से ध्यानत्व का स्वीकार करने में बापत्ति नहीं है। अब शुक्मयान का दूसरे भेद का स्वरूप बताते हैं एवं श्रुतानुसाराद् ग्फत्वावतर्कमेकपर्याये। अर्थ- व्यञ्जन-योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु ॥७.। अर्थ-शुक्लध्यान के द्वितीय भेव में पूर्वभुतानुसार कोई भी एक ही पर्याय ध्येय होता है। अर्थात् परमाणु, जीव, ज्ञानादि गुण, उत्पाद आदि कोई एक पर्याय, शन या अप, तीन योगों में से कोई एक योग ध्येयरूप में होता है। किन्तु अ.ग-अलग नहीं होता । एक ही ध्येय होने से इसमें संक्रमण नहीं होता है। इसलिए यह 'एकत्व-वितक-अविचार' नामक दूसरा शुक्लध्यान है। व्याख्या-कहा है-यह ध्यान निर्वातस्थान में भलीभांति रखे हुए दीपक के समान निष्कप होता है। इस ध्यान में एक ही ध्येय होने से अपनी ही जाति के दूसरे शब्द, अर्थ, पर्याय या अन्य योग का ध्येय में संक्रमण नहीं होता है । परन्तु उत्पाद, स्थिति, विनाश आदि में से किसी एक ही पर्याय में ध्यान होता है । ध्येयान्तर में संक्रमण नही होता है। पूर्वगत त का आलंबन ले कर किसी एक ही शब्द, वर्ष, पर्याय या योग का ध्यान होता है। परन्तु यह ध्यान निर्विकल्पक-निश्चल होता है। यह ध्यान बारहवें गुणस्थानक के अन्त तक रहता है । इसमें यथाख्यातचारित्र होता है। अब शुक्लध्यान के तीसरे भेद का स्वरूप बताते हैं निर्वाणगमनसनये, केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, तृतीयं कोतितं शुक्लम् ॥८॥ अर्थ-मोक्ष जाने का समय अत्यन्त निकट आ जाने पर केवली भगवान् मन, वचन और काया के स्थूलयोगों का निरोध कर लेते हैं। केवल श्वासोच्छवास आदि की सूक्ष्मकिया रहती है। इसमें सूचनक्रिया मिट कर कभी स्थूल नहीं होती ; इसलिए इसका नाम सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति' शुक्लध्यान कहलाता है। इस ध्यान में आत्मा लेश्या बोर योग से रहित बन जाता है, आत्मा शरीर-प्रवृत्ति से अलग हो जाता है । अब न्युपरतक्रियानिवर्ति नाम का चौथा भेद बताते हैं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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