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________________ खुल्लम्यान के अधिकारी, उसके भेद और लक्षण शान्त एवं स्थिर नहीं हो सकता। इसी कारण अल्पसत्त्व वाले जीव शुक्लध्यान के अधिकारी नहीं हो सकते। व्याख्या-कहते हैं, शुक्लध्यानी सापक के शरीर को कोई किसी शस्त्र से छेदन-भेदन करे, मारे, बला; फिर भी वह दूर बड़े हुए प्रेक्षक की तरह देखा करता है, तथा वर्षा, वायु, ठंग, गर्मी बादि दुःखों से वह अधीर नहीं होता, शुक्लध्यान में जब आत्मा तन्मय बन जाता है, तब बांखों से कुछ भी नहीं देखता है, कानों से कुछ भी सुनता नहीं है; तथा पाषाण की मूत्ति के समान इन्द्रिय सम्बन्धी कोई भी शान यह नहीं करता। इस प्रकार जो अपने ध्यान में स्थिरता रखता है, वही शुक्लध्यान का अधिकारी हो सकता है। अल्पसत्त्व वाला नहीं हो सकता । यहाँ शंका करते हैं कि प्रथम संहनन वाले हो शुक्लध्यान के बधिकारी हो सकते हैं, ऐसा कहा है, तो इस दु:षमकाल में तो बन्तिम सेवार्त-संहनन वाले पुरुष हैं। ऐसी स्थिति में शुक्लध्यान के उपदेश देने की इस समय क्या बावश्यकता है? इस प्रश्न का यहां समाधान करते हैं मनपाच्या समागतोऽस्येति कोय॑तेऽस्माभिः। दुष्करमप्याधुनिकः शुक्लध्यानं यथाशास्त्रम् ॥४॥ अर्थ-यद्यपि शास्त्रानुसार वर्तमानकाल के साधकों के लिए शुक्लध्यान करना अतिदुष्कर है, फिर भी शुक्लध्यान के सम्बन्ध में अनवच्छिन्न आम्नाय-(परम्परा) चलो मा रही है, वह टूट न जाए, इसलिए उसका स्वरूप बता रहे हैं। शुक्लध्यान के भेद बताते हैं जयं नानात्वश्रुतविचारमंक्यं श्रुताविचारं च । सूक्मक्रियमुत्सन्नक्रियमिति मेवश्चतुर्धा तत् ॥५॥ अर्थ · शुक्लध्यान के चार भेद जानने चाहिए-(१) पृथक्त्व वितर्कसविचार, (२) एकत्व-वितर्क-अविचार, (३) समणियाप्रतिपाति और (४) व्युपरतक्रिया निवृत्ति। व्याख्या-यहां नानात्व का वर्ष विविध विषयों का विचार करना है । किनका! वितर्क वर्षात् श्रुत-द्वादशांगी-चौदह पूर्व का विचार करना। विचार का अर्थ है-विशेषरूप में चार अर्थात् चलना-एक स्थिति में से दूसरी स्थिति में गति करना । तात्पर्य यह है कि परमाणु, इयणुक आदि पदार्थ, व्यवन-शब्द, योग=मन वचन काया की प्रवृत्ति में, संक्रान्ति करना विचार है। एक से यानी एक विचार से दूसरे में जाना और निकलना। अब प्रथम भेद की विशेष व्याख्या करते हैं एकन पर्यायाणां विविधनया: सरणं श्रुताद् द्रव्ये। अर्थ- व्यञ्जन-योगान्तरेषुसंक्रमणयुक्तमातत् ॥६॥ अथं-एक परमाणु आदि किसी द्रव्य के उत्पाद, विलय, स्थिति, मूर्तत्व, अमूर्तत्व मादि पर्यायों का, व्याधिक पर्यायाधिक आदि विविध नयों के अनुसार पूर्वगत-भूतानुसार चिन्तन करना । तथा वह चिन्तन अर्ष, व्यंजन (शब्द) एवं मन-वचन-काया के योग में से किसी एक योग में संक्रमण से युक्त होता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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