SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोनशास्य : वशम प्रकाश अपने हाथों अपने बीवन को मोहाग्नि से जला कर दुःखी हुआ हूं। बात्मन् ! मोक्षमार्ग स्वाधीन होने पर भी उस मार्ग को छोड़ कर तूने स्वयं ही कुमार्ग को ढूंढ कर अपनी आत्मा को कष्ट में डाला है । जैसे स्वतंत्र राज्य मिलने पर भी कोई मूर्खशिरोमणि गली-गली में भीख मांगता फिरता है, वैसे ही मोक्ष का सुख स्वाधीन होने पर भी मुझ-सा मूढ जीव पुद्गलों से भीख मांगता हुआ ससार में भटकता फिर रहा है। इस प्रकार अपने लिए और दूसरों के लिए चार गति के दुःखों का परम्परा-विषयक विचार करना और उनसे सावधान होना, अपाय-विषय नामक धर्मध्यान है । अब विपाकविषयक धर्मध्यान कहते हैं REE प्रतिक्षणसमुद्भूतो, यत्र कर्मफलोदयः । चिन्त्यते चित्ररूपः स, विपाकविचयो मतः ॥१२॥ या सम्पदाऽर्हतो या च, विपदा नारकात्मनः । एकातपत्रता तत्र, पुण्यापुण्यस्य कर्मणः ॥१३॥ अर्थ - क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के कर्मफल के उदय का चिन्तन करना, विपाक-विषयक धर्मध्यान कहलाता है। उसी बात का विचार करते हुए दिग्दर्शन कराते हैं कि श्रीअरिहंत भगवान् को जो श्रेष्ठतम सम्पत्तियां और नारकीय जीवों को जो घोरतम विपत्तियाँ होती है, इन दोनों में पुण्यकर्म और पापकर्म की एकछत्र प्रभुता है। अर्थात् पुण्य-पाप की प्रबलता ही सुख-दुःख का कारण है । व्याख्या - इस विषय के आन्तरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं- विपाक अर्थात् शुभाशुभ कर्मों का फल | इस फल का अनुभव द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री के अनुसार अनेक प्रकार से होता है। इसमें स्त्रीआलिंगन, स्वादिष्ट खाद्य मादि भोग, पुष्पमाला, चन्दन आदि अंगों के उपभोग शुभ पुण्यकर्म हैं और सर्प, शस्त्र, अग्नि, विष आदि का अनुभव अशुभ पापकर्म के फल हैं। यह द्रव्य सामग्री है। सौधर्म आदि देव - विमान, उपवन, बाग, महल, भवन, आदि क्षेत्र प्राप्ति शुभपुण्योदय का फल है और श्मशान, जंगल, शून्य, रण आदि क्षेत्र की प्राप्ति अशुभ-पाप का फल है। न अत्यन्त ठंड, न अत्यन्त गर्मी, बसंत और शरदऋतु आदि आनंददायक काल का अनुभव शुभपुण्य फल है और बहुत गर्मी, बहुत ठंड, ग्रीष्म बोर हेमंतऋतु आदि दुःखदकाल का अनुभव अशुभ- पापफल है। मन की निर्मलता, सतोष, सरलता, प्रभावसहित व्यवहार बादि शुभभाव पुण्य के फल हैं और क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, रोद्रध्यान शादि अशुभ भाव पाप के फल हैं। उत्तम देवत्व, युगलियों की भोगभूमि में, मनुष्यों में जन्म; भवविषयक शुभ पुण्योदय है; भील आदि म्लेच्छ-जाति के मनुष्यों में जन्म, तिर्यच, नरक आदि में जन्म ग्रहण करना अशुभ पापोदय है । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भव के आश्रित कर्मों का क्षयोपशम, उपशम ब्रा क्षय होता है। इस प्रकार जीवों के द्रव्यादि सामग्री के योग से बंधे हुए कर्म अपने आप फल देते हैं। उन कर्मों के आठ भेद वे इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आयुष्य, गोत्र और अंतराय । शाम, जैसे किसी आंच वाले मनुष्य के आंखों पर पट्टी बांध दी गई हो तो उसे जाँचें होते हुए भी नहीं दीखता ; इसी तरह जीव का सर्वश के सहस ज्ञान, ज्ञानावरणीयकर्मरूपी पट्टी से ढक जाता है । मंति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय, और केवलज्ञान; ये पांचों ज्ञान जिससे रुक जाएं, वह ज्ञानावरणीय
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy