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________________ १८७ बामाविषय ध्यान का स्वरूप और फल व्याख्या- इस विषय से सम्बन्धित बांतर-श्लोकों का भावार्य कहते हैं-बाप्त बर्वाद पक्षपातरहित प्रामाणिक पुरुष के बचन बाप्तवचन कहलाते हैं। ये दो प्रकार के है-प्रथम मानमवचन, दूसरा हेतु-पुस्तिवाव-बचन । शब्दों से ही पदों बार उसके बयों का स्वीकार करना मागमवचन है, और दूसरे प्रमाणों, हेतुबों, और युक्तियों की समानता या सहायता से पदार्थों की सत्यता स्वीकार करना हेतुबाद कहलाता है। ये दोनों निर्दोष (एक समान) हों, वे ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। क्योंकि जिसका कारण और परिणाम निर्दोष हो, वही प्रमाण माना गया है। रागढष, मोह बादि दोष कहलाते हैं और बरिहंत परमात्मा में वे दोष नहीं होते । इसलिए निर्दोष पुरुष से उत्पन्न वचन होने से बरिहन्त परमात्मा के वचन प्रमाणभूत गिने जाते हैं। नय और प्रमाण से सिद्ध, पूर्वापरविरोध से रहित, किसी भी तर्क से अबाधित अन्य दर्शनों या बलवान शासकों द्वारा जिसका प्रतिकार न किया जा सके, ऐसा बागम बंग, उपांग, प्रकीर्णक, मूल, छेद आदि अनेक भेदरूपी नदियों का समागम-स्थानरूप समुद्र-समान है तथा अतिशयज्ञानरूपी महासाम्राज्य-लक्ष्मी से विभूषित है, दूर भव्य के लिए इसको उपलब्धि बत्यन्त दुर्लभ है। परन्तु भव्य आत्मा के लिए अत्यन्त सुलभ है। मनुष्यों और देवताओं द्वारा सदा प्रशंसित स्तुतिकृत गणिपिटकरूप हैं। वह आगम द्रव्य से नित्य बोर पर्याय से अनित्य है, स्वस्वरूप में सत् बोर परस्वरूप में असत् पदार्थों की प्रतीति कराने वाला है। उसके आधार पर स्याद्वाद-न्याय योग से बाजा का मालम्बन लेकर पदार्थ का चिन्तन करना, आशाविषय नामक धर्मध्यान कहलाता है। अब अपायविचय ध्यान के बारे में कहते हैं रागद्वेष-कषायाः , जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्रापायांस्तवपायविचय-ध्यानमिष्यते ॥१०॥ अर्थ- ध्यान में उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष, कोषावि कषाय, विषयविकार मावि पापस्थानों और तज्जनित दुःख, क्लेश, दुर्गति आदि का चिन्तन करना, 'अपाय-विषय' धर्मध्यान कहलाता है। इसका फल कहते हैं ऐहिकामुष्मिकापाय-परिहारपरायणः । ततः प्रतिनिवर्तेत, समन्तात् पापकर्मणः ॥११॥ अर्थ-राग, द्वेषादि से उत्पन्न होने वाले चार गति-सम्बन्धी दुःखों का विचार करने से ध्याता इस लोक और परलोक के तुःखदायी कष्टों का परिहार करने के लिए तत्पर हो जाता है, और इससे वह सब प्रकार के पापकर्मो से निवृत्त हो जाता है। व्याख्या-इस सम्बन्ध में प्रयुक्त बान्तरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं-जिसने बीवीतराव परमात्मा के मार्ग को स्पर्श नहीं किया, परमात्मा का स्वरूप नहीं जाना, नित्ति-मार्ग के परमकारणरूप साधुमार्ग का सेवन नहीं किया, उस जीव को हजारों प्रकार की आपत्तियां बाती है। इस दुनिया की माया बोर मोहान्धकार में जिसका मन पराधीन बना हुआ है, वह कौन-सा पाप नहीं करता? कौन-सा कष्ट सहन नहीं करता? अर्थात् सभी पाप करता है और सभी प्रकार के दुःख भी भोगता है। नरक, तिर्यच और मनुष्य गति में जो दुःख भोगा है. उसमें मेरा अपना ही प्रमाद और मेरा अपना ही दुष्ट मन कारण है। 'प्रभो! बापका श्रेष्ठ सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी मन बचन और काया से दुष्ट चेष्टा करके में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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