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________________ १८४ योगशास्त्र: नवम प्रकार येन येन हि भावेन, युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति, विश्वरूपो मणिर्यथा ॥१४॥ अर्थ-स्फटिकरत्न के पास जिस रंग की वस्तु रख दी जाती है, वह रत्न उसी रंग का दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार स्फटिक के समान अपना निर्मल आत्मा, जिस-बिस भाव का मालम्बन ग्रहण करता है, उस उस भाव को तन्मयता वाला बन जाता है। इस प्रकार सध्यान का प्रतिपादन करके अब बसद्-ध्यान छोड़ने के लिए कहते हैं नासध्यानानि सेव्यानि, कौतुकेनापि किन्त्विह । स्वनाशायव जायन्ते, सेव्यमानानि तानि यत् ॥१५॥ अर्थ-अपनी इच्छा न हो तो कुतूहल से भो असध्यान का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका सेवन करने से अपनी आत्मा का विनाश ही होता है। वह किस तरह ? सिध्यन्ति सिद्धयः सर्वाः, स्वयं मोक्षावलम्बिनाम् । संदिग्धा सिद्धिरन्येषां स्वार्थ शस्तु निश्चितः ॥१६॥ अर्थ-मोक्षावलम्बी योगियों को स्वतः हो सभी (अष्ट) महासिद्धियां सिद्ध उपलब्ध हो जाती हैं और परम्परा से स्वतः सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त हो जाती है। किन्तु संसारसुबके अभिलाषियों को सिद्धि की प्राप्ति संदिग्ध है, क्योंकि इष्ट लाभ मिले या न मिले, परन्तु (मात्महित से) स्वार्थभ्रष्टता तो अवश्य होती है। इस प्रकार परमाहत भीकुमारपाल राजा को जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचनाचार्यसूरीश्वर-रचित 'अध्यात्लोपनिषद' नामक पट्टबर अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपरिरसहित नवम प्रकास पूर्ण हुमा।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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