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________________ परकायप्रवेशविधि और उपसंहार ५२९ में प्रन्धि को भेद कर ब्रह्मरन्ध्र में ले जाए । यहाँ समाधि प्राप्त हो सकती है। कौतुक-(चमत्कार) करने या देखने की इच्छा हो तो योगियों को उस पवन को ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकाल कर, समाधि के साथ आक को रूई में धीरे-धीरे वेष करना चाहिए अर्थात् पवन को उस कई पर छोड़ना चाहिए। आक की रूई पर बार-बार अभ्यास करने से अर्थात पवन को बार-बार ब्रह्मरन्ध्र पर और बार-बार रूई पर लाने का अभ्यास जब परिपूर्ण हो, नाए, तब योगी को स्थिरता के साथ मालतो,चमेली आदि पुष्पों को लक्ष्य बनाकर सावधानी से उस पर पवन को छोड़ना चाहिए । इस तरह हमेशा अभ्यास करते-करते अब अभ्यास हर हो जाए और वरुणवायु चल रहा हो तब कपूर, अगर और कुष्ठ आदि सुगन्धित द्रव्यों में पवन को वेध करना-(छोड़ना चाहिए। इस प्रकार सबमें वेष करने में जब सफलता प्राप्त हो जाए और ऊपर कहे हुए सर्व-संयोजनों में वायु छोड़ने में कुशलता प्राप्त हो जाए; तब छोटेछोटे पक्षियों के मृत शरीर में वेध करने का प्रयत्न करना चाहिए। पतंगा, भौरा आदि के मृत शरीर में वेष करने का अभ्यास करने के बाद हिरन आदि के विषय में भी अभ्यास आरम्भ करना चाहिए । फिर एकाग्रचित्त धीर एवं जितेन्द्रिय हो कर योगी को मनुष्य, घोड़ा, हाथी आदि के मृतशरीरों में प्रवेश और निर्गम करते हुए अनुक्रम से पाषाणमूर्ति, पुतली, देवप्रतिमा आदि में भी प्रवेश करना चाहिए। उपसंहार करते हुए शेष कहने योग्य बात कहते हैं एवं परासु-देहेषु, प्रविशेद् वामनासया । जीवद्देहप्रवेशस्तु नोच्यते पापशंकया । २७२॥ अर्थ-इस प्रकार मृत-जीवों के शरीर में बायों नासिका से प्रवेश करना चाहिए। दूसरे के प्राणनाश होने के भय से पाप की शंका से जीवित देह में प्रवेश करने का कथन नहीं कर रहे है। भावार्थ : जीवित शरीर में प्रवेश शस्त्र-धातादि के समान पापस्वरूप होने से कथन करने योग्य नहीं है। दूसरे के प्राणों का नाश किए बिना उसके शरीर में प्रवेश नहीं किया जा सकता है। वह वस्तुत: हिसारूप है । टीका में उसका दिगदर्शन किया गया है, वह इस प्रकार है-- ब्रह्मरन्प्रेण निर्गत्य, प्रविश्यापानवर्त्मना । भित्वा नाभ्यम्बुजं यायात् हृदम्भौज सुषुम्णया ॥१॥ तत्र तत्प्राण-संचारं निरध्यानिजवाना। यावद्दे हात्ततो बेहो, गतचेष्टो पनिष्पोत् ॥२॥ तेन बेहे विनिर्मुक्त प्रादुभूनिए । वर्तेत सर्वकार्येषु स्वदेह इव योगवित् ॥३॥ दिनार्ष वा दिनं चेति क्रीडेत् परपुरे सुधीः । अनेन विधिना भूयः प्राव सितपुरम् ॥४॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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