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________________ नाडीशुद्धि की विधि और नाहीसंचारज्ञान का फल अखिलं वायुजन्मेदं, सामयं तस्य जायते । कतुं नाडो-विद्धि य., सम्यग् जानात्यमूढधीः ॥२५॥ अर्थ-जो प्रखरबुद्धि पुरुष नाड़ी को विशुद्धि भलीभांति करना जानता है, उस वायु से उत्पन्न होने वाला सर्वसामर्थ्य प्राप्त हो जाता है। अब नाड़ीशुद्धि की विधि चार श्लोकों से कहते हैं नाभ्यब्जकर्णिकारूढं, कला-बिन्दु-पविनितम् । रेफाक्रान्तं स्फुरद्भासं, हकारं परिचिन्तयेत् ॥२५६॥ तं ततश्च तडिद्वगं स्फुलिंगाचिःशताञ्चितम् । रेचयेत् सूर्यमार्गेण, प्रापयेच्च नभस्तलम् ।।२५७॥ अभृतः प्लावयन्तं तमवतार्य शनस्ततः। चन्द्राभं चन्द्रमार्गेण,नाभिपने निवेशयेत् ॥२५८।। निष्क्रमं च प्रवेशं च, यथामार्गमनारतम् । कुर्वन्नेवं महाभ्यासो, नाडीशुद्धिमवाप्नुयात् ॥२५६॥ अर्थ-नाभिकमल को कणिका से आरूढ़ हुए कला और बिन्दु से पवित्र रेफ से आक्रान्त प्रकाश छोड़ते हुए हकार (ह) का चिन्तन करना। उसके बाद विधुत की तरह वेगवान और सैकड़ों चिनगारियों और ज्वालाओं से युक्त 'ह" का सूर्यनाड़ी के मार्ग से रेचन (बाहर निकाल) करके आकाशतल तक ऊपर पहुंचाना। इस तरह आकाश में पहुंचा कर भिगो कर घोरे-धीरे उतार कर, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल और शान्त बने हए 'ह'को चन्द्रनाड़ी के मार्ग से प्रवेश करवा कर नाभिकमल में प्रविष्ट कराना चाहिए। इस प्रकार उक्त माग से प्रवेश और निगमन का सतत महाभ्यास करते-करते साधक नाडीशुद्धि को प्राप्त कर लेता है। नाड़ी-सचार के ज्ञान का फल कहते है नाडी शुद्धाविति प्राज्ञः, संपन्नाभ्यासकोशलः । स्वेच्छया घटयेद् वायु, पुटयोस्तत्क्षणादपि ॥२६०॥ अर्थ-इस प्रकार नाड़ी-शुद्धि के अभ्यास में कुशलता प्राप्त विचक्षण पुरुष अपनी इच्छानुसार वायु को एक नासापुट (नाड़ी, से दूसरे नासापुट (नाड़ी) में तत्काल अवल-बदल कर सकता है। अब बांयी-दाहिनी नाड़ी में रहे हुए वायु का कालमान कहते हैं है एव घटिके सापे, एकस्यामवतिष्ठते । तामुत्सृज्यापरी नाडीमधितिष्ठति मारुतः ॥२६१॥ षट्शताभ्यधिकान्याहुः स.लाग्येकविंशतिम् । अहोराने नरि स्वस्थे, प्राणवायोर्गमागमम् ॥२६२॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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