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________________ ५४३ अपने अंगोपांगों से मृत्यु का ज्ञान अ?ष्णमर्धशीत च शरीरं जायते यदा। ज्वालामाज्ज्वलेद् वाऽङ्ग, सप्ताहेन तदा मृतिः ।।१६४॥ अर्थ-यदि किसी का आधा शरीर उष्ण और आधा ठंडा हो जाए और अकस्मात् ही शरीर में ज्वालाएं जलने लगें तो उसकी एक सप्ताह में मृत्यु होती है । तथा स्नातमात्रस्य हृत्पादौ तत्क्षणाद् यदि शुष्यति । दिवसे जायते षष्ठे, तदा मृत्युरसंशयम् ॥१६॥ अर्थ-यदि स्नान करने के बाद तत्काल ही छाती और पैर सूख जाएं तो निःसंदेह छठे दिन उसको मृत्यु हो जाती है । तथा - जायते दन्तघर्षश्चेत् शवगन्धश्च दुःसहः । विकृता भवति च्छाया, व्यहेन म्रियते तदा ॥१६६॥ अर्थ- जो मनुष्य दांतों को कटाकट पोसता-घिसता रहे जिसके शरीर में से मुर्वे के समान दुर्गन्ध निकलती रहे, या जिसके शरीर का रंग बार-बार बदलता रहे, या जिसकी छाया बिगड़ती रहे उसकी तीन दिन में मृत्यु होती है। न स्वनासां स्वजिह्वां न, न ग्रहान नामला विशः । नापि सप्तऋषीन दयह्नि, पश्यति म्रियते तदा ॥१६७।। अर्थ- जो मनुष्य अपनी नाक को, अपनी जीभ को, आकाश में ग्रहों को, नक्षत्र को, तारों को, निर्मल दिशाओं को, सप्तर्षि ताराणि को नहीं देखता; वह दो दिन में मर जाता है। प्रभाते यदि वा सायं, ज्योत्स्नावत्यामथो निशि। प्रवितत्य निजौ बाहू, निजच्छायां विलोक्य च ॥१६॥ शनैरुत्क्षिप्य नेने स्वच्छायां पश्येत् ततोऽम्बरे। न शिरो दृश्यते तस्यां यदा स्यान्मरणं तवा ।।१६६॥ नेक्ष्यते वामबाहुश्चेत् पुत्रदारक्षयस्तदा । यदि दक्षिणबाहुर्नेक्यते भ्रातृक्षयस्तदा ॥१७॥ अदृष्टे हृदये मृत्युः उदरे च धनक्षयः । गुह्ये पितृविनाशर व्याधिरूल्युगे भवेत् । १७१॥ अदर्शने पादयोश्च, विदेशगमनं भवेत् । अदृश्यमाने सर्वाङ्ग, सद्यो मरणमादिशेत् ॥१७२॥ अर्थ-कोई मनुष्य प्रातःकाल या सांयकाल अथवा शुक्लपक्ष की रात्रि में प्रकाश में बड़ा होकर अपने दोनों हाथ मुत को तरह नीचे लटका कर कुछ समय तक अपनी छाया देखता रहे, उसके बाद मेत्रों को धीरे-धीरे छापा से हटा कर ऊपर आकाश में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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