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________________ ॐ अहंते नमः पंचम प्रकाश प्राणायाम का स्वरूप-ॐ सर्वज्ञ परमात्मा श्री जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार हो। पंतजलि आदि अन्यमत के योगाचार्यों ने योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि; ये आठ अंग मोक्ष के अंगरूप माने हैं; परन्तु जैनदर्शनकारों ने प्राणायाम को मुक्ति के वास्तविक साधनरूप ध्यान मे स्वीकार नही किया है । क्योंकि अभ्यास के बिना वह असमाधि पैदा करता है। कहा भी है कि 'अभिग्रह करने वाला भी श्वासोच्छवास रोक नहीं सकता; तो फिर दूसरी चेष्टा करने वाला श्वासोच्छ्वास कैसे रोक मकता है ? (हठयोग केअभ्यास के बिना वह नहीं रोक सकता है) अन्यथा तत्काल मृत्यु हो जाना संभव है। सूक्ष्म उच्छ्वास भी शास्त्रविधि के अनुसार यतनापूर्वक जानना चाहिए। फिर भी प्राणायाम की उपयोगिता शरीर की निरोगता और कालज्ञान के लिए है ; इस कारण यहाँ उसका वर्णन किया जाता है प्राणायामस्ततः कैश्चिद्, आश्रितो ध्यानसिद्धये । शक्यो नेतरथा कत्तुं मनः-पवन-निर्जयः ।।१॥ अर्थ--आसन को सिद्ध करने के बाद ध्यान की सिद्धि के लिए पंतजलि आदि योगाचार्यों ने प्राणायाम का आश्रय लिया है। मुख और नासिका के अन्दर संचार करने वाला वायु 'प्राण' कहलाता है, उसके संचार का निरोध करना प्राणायाम' है । प्राणायाम के बिना मन और पवन जीता नहीं जा सकता। यहाँ प्रश्न करते है कि 'प्राणायाम से पवन पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु मन पर विजय कैसे हो सकता है ? इसका समाधान करते हैं कि मनो यत्र मरुत् तन, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतो, संयुक्तौ क्षीरनीरवत् ॥२॥ अर्थ जहाँ मन है, वहीं पवन है और जहाँ पवन है, वहाँ मन है । इस कारण समान क्रिया वाले मन और पवन, दूध और जल की भांति आपस में मिले हुए हैं। दोनों की समान क्रिया समझाते हैं एकस्य नाशेऽन्यस्य स्यान्नाशो, वृत्तौ च वर्तनम् । ध्वस्तयोरिन्द्रियमतिध्वंसान्मोक्षश्च जायते ॥३॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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