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________________ योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश खड़े रहते देव, मनुष्य और तिर्यच के घोर उपसगों को मन और शरीर से चलायमान हुए बिना, निश्चलता से सहन करे, नौवी प्रतिमा में इस प्रकार-सात अहोरात्र होती है, इसमें चउत्थभक्त तप के पारने पर आयबिल करे और गांव आदि के बाहर रहे, इत्यादि और सब आटवीं के समान करे, विशेषता इसमें इतनी है कि इस प्रतिमा में उत्कट अर्थात् मस्तक और एडियों के आधार पर केवल बीच मे जंघा से अधर रह कर अथवा लगुड अर्थात् टेढ़ी लकडी के समान केवल पीठ के आधार पर मस्तक और पर जमीन को स्पर्श न करे इस तरह, अथवा दण्ड के समान पर लम्बे कर सोय हुए उपसर्ग आदि सहन करना । दसवीं प्रतिमा में इस तरह है-टीसरी अर्थात दसवी प्रतिमा भी उन दोनो के समान ही है, केवल उसमें गोदुहामन (गाय दूहने के समय से दोनों पैर की अंगुलियां जमीन पर टिका कर बैठते हैं, उसी तरह) है अथवा वीरासन से अर्थात सिंहासन पर बैठे हों, पर जमीन रखे हो और बाद में सिंहासन हटा दिया हो, उस समय जो आकृति बनती है, उस आसन से अथवा आम्र के समान शरीर से वक्र हो कर बैठना होता है । इसमें से किसी भी आसन मे यह प्रतिमा धारण की जा सकती है ।" आसन ध्यान के माधन हो सकते हैं, इसे अब दो श्लोकों द्वारा बताते हैं सुखासनसमासीनः, सुश्लिष्टाधरपल्लवः । नासानन्यस्तहग्द्वन्द्वो, दन्तर्दन्तानसंस्पृशन् ॥१३॥ प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुखो वाऽप्युदङ मुखः। अप्रमत्तः सुसंस्थानो, ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत्॥१३६॥ अर्थ-- सुखासन से स्थित रहे, उसके दोनों ओष्ठ मिले हुए हों, दोनों नेत्र, नाक के अग्रभाग पर स्थिर हों, दांतों के साथ दांतों का स्पर्श न हो, मुखमण्डल प्रसन्न हो, पूर्व या उत्तर दिशा में मुख हो, प्रमाद से रहित हो, इस प्रकार मेरुदण्ड को सीधा रख कर ध्याता को ध्यान के लिए उद्यत होना चाहिए। व्याख्या-जिस आसन से लम्बे समय तक बैठने पर भी समाधि विचलित न हो ; इस तरह के मुखासन से ध्याता को बंठना चाहिए, दोनों बोठ मिला कर रखे, नासिका के अग्रभाग पर दोनों आँखें टिका दे ; दांत इस प्रकार रखे कि ऊपर के दांतों के साथ नीचे के दांतों का स्पर्श न हो, रजोगुण और तमोगुण से रहित हो, पलक झपाए बिना चेहरा प्रसन्न रखे। पूर्व या उत्तर दिशा में मुख रख कर अथवा प्रभुप्रतिमा के सन्मुख अप्रमत्त हो कर बैठे। 'अप्रमत्त' कह कर यहाँ घ्यान का मुख्य अधिकारी बतला रहे हैं। कहा भी है कि-- "अप्रमत्तसंयत का धर्मध्यान होता है।" शरीर को सीधा अथवा मेरुदण्ड के समान निश्चल बना कर ध्याता को ध्यान करने के लिए उद्यम करना चाहिए। इस प्रकार साधु और श्रावक-विषयक ध्यानसिद्धि के साधनभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय का कथन किया है, दूसरे समग्र ध्यान के भेद आदि मागे अप्टम प्रकाश में बतलाये हैं। इस प्रकार परमाहत भीकुमारपाल राजा को जिज्ञासा से प्राचार्यश्री हेमचन्द्राचार्य-सूरीश्वररचित 'अध्यात्मोपनिषद' नामक पट्टबड अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपविवरणसहित चतुर्ष प्रकाश सम्पूर्ण हमा।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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