SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०२ योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश के बाद और बाहार एक उपवास जितने समय के बाद होता है। पल्योपमस्थिति के देवों का उच्छवास एक दिन के अन्दर और दो से नौ दिन में बाहारग्रहण का समय होता है । जिन देवों का जितने स.गरोपम का आयुष्य होता है वे उतने पाक्षिक के बाद उच्छ्वास लेते हैं और उतने हजार वर्ष में आहार लेते हैं। देवताओं को प्रायः सातावेदनीय कर्म होते हैं, कभी अमातावेदनीय होता भी है, तो वह केवल अन्तमुहूर्त समय तक का होता है ; अधिक नहीं। देवियों की उत्पत्ति दूसरे ईशान देवलोक तक ही होती है। किन्तु देवियों को जाना हो तो बारहवें अच्युत देवलोक तक जा सकती हैं । अन्य मतवाले तापस आदि ज्योतिषदेवलोक तक, पचेन्द्रिय तिर्यच आठवें सहस्रारकल्प तक, मनुष्य श्रावक बारहवे अच्युतदेवलोक तक, श्री जिनेश्वर भगवान का चारित्र-चिह्न अंगीकार करने वाला, मिथ्याष्टि, यथार्थ समाचारी पालन करने वाला नौवं ग्रंवेयक तक, चौदह पूर्व र ब्रह्मलोक से सर्वार्थसिद्ध तक, अविराधित व्रत वाले साधु और श्रावक जघन्य सौधर्मदेवलोक तक जाते हैं । भवनवासी देव आदि से दूसरे ईशान देवलोक तक के देवता शरीर से संभोगसुख भोगते हैं, ये देव सक्लिष्ट कर्म वाले मनुष्यों के समान मैथुनसुख में गाढ़ आसक्त बन कर उसमे तीव्रता से तल्लीन रहते हैं, और काया के परिश्रम से सर्व अंगों का स्पर्शसुख प्राप्त करके प्रीति करते हैं । मागे तीसरे-चौथे कल्पवासी देव केवल स्पर्शसुख के उपभोक्ता होते हैं, पांचवें, छटे कल्प के देव देवियों का रूप देख कर, सातवें-आठवे देवलोक के देव देवियों का शब्द सून कर, नौवे से नारहवें तक चार देवलोक के देव मन मे देवी का चिन्तन करने से तृप्त हो जाते है । उसके बाद के देवों में किसी भी प्रकार से मंथन-सेवन नहीं होता, परन्तु प्रवीचार करने वाले देवों से प्रवीचार नहीं करने वाले देव अनंतगुना सुख भोगने वाले होते हैं। इस तरह लोक के तीन भेद हैं-अघोलोक. तिर्यकलोक और ऊर्ध्वलोक । इस लोक के मध्य भाग में एक राजू-प्रमाण लम्बी-चौड़ी ऊपर नीचे मिला कर चौदह राज लोक प्रमाण वाली सनाडी है, जिसमें त्रस और स्थावर जीव रहते है, और असनाडी के बाहर केवल स्थावर जीव ही होते हैं। अब लोक का विशेष स्वरूप कहते हैं - निष्पादितो न केनापि, न धृतः केनचिच्च सः। स्वयंसिद्धो निराधारो, गगने कित्ववस्थितः ॥१०६॥ अर्थ- इस लोक को न किसी ने बनाया है और न किसी ने धारण कर रखा है। यह अनादिकाल से स्वयंसिद्ध है, और आधार के बिना आकाश पर स्थित है। व्याख्या-प्रकृति, ईश्वर, विष्ण, ब्रह्मा, पुरुष आदि में से किसी ने भी इस लोक (जगत) को बनाया नहीं है। प्रकृति अचेतन होने से उसमें कर्तृत्व नहीं हो मकता । ईश्वर आदि को प्रयोजन नहीं होने से उनका भी कर्तृत्व नहीं है । यदि कोई कहे-'उन्होंने लोक क्रीड़ा के लिए बनाया है' तो यह कथन भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि क्रीड़ा तो रागी में अथवा बचपन में होती है। यदि यह कहो कि 'उनमें तो क्रीडासाध्य प्रीति शाश्वत है'; तब तो क्रीड़ा के निमित्त मे उनको प्रीति मानने पर तो पहले अतृप्ति भी थी ऐसा मानना होगा । यदि उन्होंने दया से लोक को उत्पन्न किया है तो सारा जगन् ही सुनी होना चाहिए, कोई भी दुःखी नहीं होना चाहिए । 'सुम्ब-दुःख कर्म के अधीन हैं' ऐसा कहते हैं तो फिर कम ही कारण है और ऐमा मानने से उनकी स्वतंत्रता का नाश होता है । जगत में कोई दुःखी, कोई सुखी, कोई राजा, कोई
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy