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________________ दावश देवलोक, नौ अवेयक और पांच अनुत्तरविमानों का वर्णन दिशा के क्रम से हैं और बीच में सर्वार्थ सिद्ध है। उसके ऊपर बारह योजन पैतालीस लाख लम्बी-चौड़ीईषत्प्रागभार नाम की पृथ्वी हैं और वही सिद्धशिला है। उसके भी उपर के भाग में तीन गाऊ के आगे चौथे गाऊ के छठे हिस्से में लोक के अन्त तक सिद्ध जीव रहे हैं। उसमें समभूतल से सौधर्म और ईशान यह दो देवलोक तक डेढ़ राजू लोक, सनत्कुमार और माहेन्द्र तक ढाई राजू लोक, सहस्रार देवलोक तक पांच राजू लोक, अच्युत देवलोक तक छह गजू लोक और लोकान्त तक सात राज़ लोक है। सौधर्म और ईशान के विमान का आकार चन्दमडल के ममान गोल है, उसमें दक्षिणार्ध का इन्द्र शक्र और उत्तरार्ध का इन्द्र ईशान है । सनत्कुमार और महेन्द्र भी उसी प्रकार हैं । उसमें दक्षिणाधं का इन्द्र सनत्कुमार और उत्तरार्ध का इन्द्र माहेन्द्र है। उसके बाद ऊध्र्वलोक के मध्यभाग मे लोक पुरुष की कोहनी के समान स्थान में ब्रह्मलोक है उसका इन्द्र ब्रह्मन्द्र है उसके एक प्रदेश में वास करने वाले सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरूण, गर्दतोय, तुपित. अव्याबाध, मरुत और अरिष्ट नाम के लोकाग्निक देव हैं। उसके ऊपर लान्तक और उसी नाम कालान्तकेन्द्र है. उसके भी ऊपर सुधर्म और ईशान के समान चंद्राकार आनन और प्राणतकल्प हैं। उसमें प्राणतवासी उसी नाम के दो कल्प के एक ही इन्द्र है, उसके ऊपर उसी तरह चंद्राकारसमान गोल आरण और अच्युत हैं वहां अच्यूतकल्पवासी उमी नाम से दो कल्प के एक इन्द्र है। उमके बाद के देवलोक के सभी देव अहमिन्द्र हैं। इसमें प्रथम दो कल्प घनोदधि के आधार पर रहे हैं, उसके ऊपर तीन कल्प वायु के आधार पर रहे हैं, उसके बाद तीन कला घनोदधि और घनवात के आधार पर रहे हैं, उनके ऊपर के कल्प आकाश के आधार पर टिके हए हैं। इन कल्पोपपन्न देवों में इन्द्र, सामानिक त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य. आत्म-रक्षक. लोकपाल, सैनिक, प्रकीर्णक, आभियोगिक, किल्बिषिक इस प्रकार देवताओं के दस विभाग है, उसमें इन्द्र सामानिक आदि नौ के स्वामी हैं। सामानिकदेव, प्रधान, पिता, गुरु, उपाध्याय बड़ों के समान होते हैं केवल इन्द्रपद से रहित होते हैं । त्रायस्त्रिंश मन्त्री और पुरोहित के स्थान के समान है. पारिपद्य देव मित्र के समान, आत्मरक्षकदेव अंगरक्षकदेव के ममान हैं, लोकपालदेव कोतवाल अथवा दूतकार्य करने वाले होते हैं, अनीकदेव सैनिक का कार्य करन वाले, उनके अधिपति सेनाधिपति का कार्य करने वाले होते हैं, उन्हें भी अनीक देवों में समझना चाहिए। प्रकीर्णकदेव नगर, जन और देशवासी के समान देव हैं, अभियोगिक देव दास-सेवक के समान आज्ञापालन करने वाले देव हैं, किल्विषिक देव अन्त्यज-समान है। व्यन्तर और ज्योतिष्क देवलोक में त्रायस्त्रिश और लोकपाल देव नही होते, इनके अलावा सभी देव वहाँ होते हैं। सौधर्मदेवलोक में बत्तीस लाख विमान होते हैं, ईशान में २८ लाख, सनत्कुमार में १२ लाख माहेन्द्र में ८ लाख, ब्रह्मलोक मे ४ लाख, लान्तक में ५० हजार, शुक्र में ४० हजार, सहस्रार में ६ हजार, आनत और प्राणत में चार सौ, आरण और अच्युत में तीन सौ विमान है, पहले तीन अवेयक में एक सौ दस, बीच के तीन वेयक में एक सौ सात, ऊपर के तीन प्रवेयक में एक सो विमान हैं, अनुत्तर के पांच ही विमान है । इस तरह कुल ८४६७०२३ विमान हैं। विजयादि चार अनुत्तरविमानवासी देवों के आखिर दो भव शेष रहते हैं, और सर्वार्थसिद्ध देवों का तो एक जन्म शेष रहता है। सौधर्म देवलोक से ले कर सर्वार्थसिद्ध तक देवों की आयु, स्थिति प्रभाव, सुख, कान्ति, लेश्या, विशुद्धि इन्द्रियों के विषय, अवधिज्ञान आगे से आगे उत्तरोत्तर बढ़कर होते हैं। गति, शरीर परिग्रह और अभिमान से वे उत्तरोत्तर हीनतर होते हैं । श्वासोच्छ्वास तो सर्वत्र जघन्यस्थिति वाला होता है, भवनपति बादि देवों का सात स्तोक
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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